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________________ · ४२ ] पञ्चाध्यायी । [ प्रथम अर्थ - यद्यपि गुण नित्य हैं तथापि विना किसी प्रयत्नके प्रति समय परिणमन करते हैं । वह परिणाम भी उन्हीं गुणोंकी अवस्था विशेष है, भिन सत्तावाला नहीं है । शङ्काकार ननु तदवस्थो हि गुणः किल तदवस्थान्तरं हि परिणामः । उभयोरन्तर्वर्तित्वादिह पृथगेतदेवमिदमिति चेत् ॥ ११८ ॥ - अर्थ — शङ्काकारका कहना है कि गुण तो सदा एकसा रहता है और परिणाम एक गमयसे दूसरे समय में सर्वथा जुदा है । तथा परिणाम और गुण इन दोनों के वीचमें रहनेवाला द्रव्य भिन्न ही पदार्थ है ? उत्तर तन्न यतः सदवस्थाः सर्वा आम्रेडितं यथा वस्तु 1 न तथा ताभ्यः पृथगिति किमपि हि मत्ताकमन्तरं वस्तु ॥ ११९ ॥ अर्थ-उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है । क्योंकि परिमान गुणोंकी ही अवस्था विशेष है : द्रव्य, गुण, पर्याय ये तीनों ही मिलकर वस्तु कहलाते हैं । इन तीनोंका नाम लेनेसे वस्तुका ही बोध होता है इसलिये ये सब वस्तुके ही द्विक्त (पुनः पुनः कथन ) हैं । उन अवस्थाओंसे जुदा भिन्न सत्तावाला गुण अथवा द्रव्य कोई पदार्थ नहीं है । --- भावार्थ - शंकाकारने गुणोंको उनके परिणामों से भिन्न बतलाया था । और उसमें हेतु दिया था कि एक समय में जो परिणाम है, दूसरे समय में उससे सर्वथा भिन्न ही है। इसी प्रकार वह भी नष्ट हो जाता है, तीसरे समयमें जुदा परिणाम ही पैदा होता है । इसलिये गुणोंसे परिणाम सर्वथा भिन्न है । इसका उत्तर दिया गया है कि यद्यपि परिणाम प्रति समय भिन्न है, तथापि जिस समय में जो परिणाम है वह गुणों से भिन्न नहीं है उन्हींकी अवस्था विशेष है । इसी प्रकार प्रति समयका परिणाम गुणोंसे अभिन्न है । यदि गुणोंसे सर्वथा भिन्न ही परिणामको माना जाय तो प्रश्न हो सकता है कि वह परिणाम किसका है ? विना परिणामी परिणामका होना असंभव है । इसलिये गुणोंका परिणाम गुणोंसे सर्वथा भिन्न नहीं है । किन्तु परिणाम समूह ही गुण है । और गुण समूह ही द्रव्य है । 1 नियतं परिणामित्वादुत्पादव्ययमया य एव गुणाः । टोत्कीर्णन्यायात्त एवं नित्या यथा स्वरूपत्वात् ॥ १२० ॥ अर्थ-जिस प्रकार परिणमन शील होनेसे गुण उत्पाद, व्यय स्वरूप हैं उसी प्रकार *कोल्कीर्ण न्यायसे अपने स्वरूपमें सदा स्थिर रहते हैं इसलिये वे नित्य भी हैं । * कड़े पत्थर में जो टांकीसे गहरे चिह्न किये जाते हैं वे मिटते नहीं है । इसीका नाम कोत्कीर्ण न्याय है । यह भी यहांपर स्थूलतासे ग्राह्य है t Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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