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________________ ३८ ] पञ्चाध्यायी । [ प्रथम - नहीं है जैसा कि चौकीपर रक्खी हुई पुस्तकोंका चौकीके साथ होता है किन्तु ऐसा है जैसा कि ÷ तन्तु और कपड़ेका अथवा पुस्तक और अक्षरोंका होता है । यद्यपि कपड़ा तन्तुओंसे भिन्न नहीं है तथापि वह तन्तुओंका आधेय समझा जाता है । इसी प्रकार पुस्तक अक्षरोंसे भिन्न नहीं है तथापि वह अक्षरोंका आधार समझी जाती है, इसी प्रकार गुण और द्रव्यका आधार-आधेयभाव है । गुण और विशेष ये दोनों ही एकार्थ वाचक हैं, गुणों में गुण नहीं रहते हैं । यदि गुणों में भी गुण रह जांय तो वे भी द्रव्य ठहरेंगे और अनवस्था दोष भी आवेगा इसलिये जो द्रव्यके आश्रय रहनेवाले हों और निर्गुण हों वे गुण कहलाते हैं । खुलासा अयमर्थो विदितार्थः समप्रदेशाः समं विशेषा ये । ते ज्ञानेन विभक्ताः क्रमतः श्रेणीकृता गुणा ज्ञेयाः ॥ १०५ ॥ अर्थ - गुण, द्रव्यके आश्रय रहते हैं, इसका खुलासा यह है कि एक गुणका जो प्रदेश है वही प्रदेश सभी गुणों का है इसलिये सभी गुणोंके समान प्रदेश हैं उन प्रदेशों में रहनेवाले गुणोंका जब बुद्धिपूर्वक विभाग किया जाता है तत्र श्रेणीवार क्रमसे अनन्त गुण प्रतीत होते हैं अर्थात् बुद्धिसे विभाग करनेपर द्रव्यके सभी प्रदेश गुणरूप ही दीखते हैं । गुणोंके अतिरिक्त स्वतन्त्र आधाररूप प्रदेश कोई भिन्न पदार्थ नहीं प्रतीत होता है । उदाहरण दृष्टान्तः शुक्लाद्या यथा हि समतन्तवः समं सन्ति । बुध्द्या विभज्यमानाः क्रमतः श्रेणीकृता गुणा ज्ञेयाः ॥ १०६ ॥ अर्थ- समान तन्तुवाले सभी शुक्लादिक गुण समान है उन शुक्लादिक गुणका बुद्धिसे विभाग किया जाय तो क्रमसे श्रेणीवार अनन्त गुण ही प्रतीत होंगे । गुणोंका नित्याऽनित्य विचार -- नित्यानित्य विचारस्तेषामिह विद्यते ततः प्रायः । विप्रतिपत्तौ सत्यां विवदन्ते वादिनो यतो वहवः ॥ १०७ ॥ + तन्तु और कपड़ेका दृष्टान्त भी स्थूल है ग्राह्यांश में ही घटित करना चाहिये । + द्रव्य के आश्रय पर्याय भी रहती है और वह निर्गुण भी है इसलिये गुणों का लक्षण पर्यायमें घटित होनेसे अतिव्याप्ति नामक दोष आता है । लक्षण अपने लक्ष्य में रहता हुआ यदि दूसरे पदार्थ में भी रह जाय, उसीको अतिव्याति कहते हैं, इस दोषको हटानेके लिये गुणों के लक्षणमें 'द्रव्याश्रय' का अर्थ यह करना चाहिये कि जो नित्यतासे द्रव्यके आश्रय रहें वे गुण हैं, ऐसा कहने से पर्याय में लक्षण नहीं जा सकता, क्योंकि पर्याय अनित्य है इसीलिये गुणोंको सहभावी और पर्यायोंको क्रमभावी बतलाया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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