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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
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भावार्थ - वस्तु में होनेवाले अवस्थाभेदको उत्पाद, व्यय कहते हैं, अवस्था नाम पर्यायका है, पर्यायोंमें कथंचित् अनित्य सिद्ध करनेके लिये ही द्रव्यको उत्पाद व्ययवान् कहा है । द्रव्यस्थानीया इति पर्यायाः स्युः स्वभाववन्तश्च ।
तेषां लक्षणमिव वा स्वभाव इव वा पुनर्व्ययोत्पादम् ॥ १०२ ॥ अर्थ – — उक्त कथनसे पर्यायों में दो बातें सिद्ध होती हैं । एक तो यह कि वे द्रव्यस्थानीय हैं - द्रव्यमें ही उत्पन्न होती हैं या रहती हैं- पर्यायें द्रव्यसे भिन्न नहीं हैं । दूसरी बात यह कि वे स्वभाववान् हैं'। जब पर्यायें द्रव्यस्थानीय तथा स्वभाववान् हैं तो उनका लक्षण और स्वभाव बताना भी आवश्यक है । अतएव यदि कोई यह जानना चाहे कि उनका लक्षण और स्वभाव क्या है ? तो उसको यही समझना चाहिये कि व्यय और उत्पाद ये दोनों ही ऐसे हैं कि जिनको पर्यायोंके लक्षणकी तरहसे भी कह सकते हैं या स्वभावकी तरहसे भी कह सकते हैं । तात्पर्य यह कि उत्पादव्यय और पर्याय में लक्ष्यलक्षण सम्बन्ध अथवा स्वभावस्वभाववत्सबन्ध है । तथा पर्यायें द्रव्यस्थानीय हैं। अतएव पर्ययवद्द्द्रव्यं यह द्रव्यका लक्षण उत्पादव्ययवद्रव्यं इस द्रव्यके लक्षणका अभिव्यंजक होता है क्योंकि द्रव्यके दोनों लक्षणों में अभि व्यज्याभिव्यंजक भाव तथा साध्यसाधन भाव है । जैसा कि पहले गुणकी अपेक्षासे कहा चुका है।
गुण निरूपण करनेकी प्रतिज्ञा-
अथ च गुणत्वं किमहो सूक्तः केनापि जन्मिना सूरिः । प्रोचे सोदाहरणं लक्षितमिव लक्षणं गुणानां हि ॥ १०३ ॥
अर्थ - गुण क्या पदार्थ है ? यह प्रश्न किसी पुरुषने आचार्य से पूंछा, तब आचार्य उदाहरण सहित गुणोंका सुलक्षित लक्षण कहने लगे ।
गुणका लक्षण -----
* द्रव्याश्रया गुणाः स्युर्विशेषमात्रास्तु निर्विशेषाश्च । करतलगतं यदेतैर्व्यक्तमिवालक्ष्यते वस्तु ॥ १०४
अर्थ — द्रव्यके आश्रय रहनेवाले, विशेष रहित जो विशेष हैं वे ही गुण कहलाते हैं । उन्हीं गुणोंके द्वारा हाथमें रक्खे हुए पदार्थकी तरह वस्तु स्पष्ट प्रतीत होती है ।
भावार्थ- गुण सदा द्रव्यके आश्रयसे रहते हैं परन्तु इनका आश्रय - आश्रयीभाव ऐसा १ पर्यायें द्रव्यस्थानीय हैं इसीलिये स्वभाववान् हैं ऐसा भी कहा जा सकता है 1 द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः " तत्वार्थसूत्र के इस सूत्रका आशय इस श्लोक द्वारा प्रकट
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किया गया है।
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