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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
उत्तर----
एतत्पक्षचतुष्टयमपि दुष्टं दृष्टवाधितत्वाच्च । तत्साधकप्रमाणाभावादिह सोप्यदृष्टान्तात् ॥ ७० ॥ अर्थ - ऊपर कहे हुए चारों ही विकल्प दोष सहित हैं, चारों ही विकल्पों में प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा बाधा आती है। तथा न उनका साधक कोई प्रमाण ही है और न उनकी सिद्धि में कोई दृष्टान्त ही है ।
भावार्थ - यदि द्रव्यको गुणांशकी तरह माना जाय तो गुणोंका परिणमन एक देशमें ही होगा । अथवा किसी भी गुणका कार्य सम्पूर्ण वस्तुमें नहीं हो सकेगा । यदि उस द्रव्यको नित्य माना जाय तो उसमें कोई क्रिया नहीं हो सक्ती है । क्रियाके अभाव में पुण्यफल, पावफल, बन्ध मोक्षादि व्यवस्था कुछ भी नहीं ठहर सक्ती है। इसी प्रकार सर्वथा क्षणिक मानने में प्रत्यभिज्ञान (यह वही है जिसको पहिले देखा था आदि ज्ञान) नहीं हो सक्ता, कार्यकारण भाव भी नहीं हो सक्ता, हेतु-फल भाव भी नहीं हो मक्ता, और परस्पर व्यवहार भी ... नहीं हो सक्ता । *
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यदि निरंश अंश मानकर उनका समान परिणमन माना जाय, तरतमरूपसे न माना जाय तो 'द्रय सदा एकता रहेगा, उसमें अवस्था भेद नहीं हो सकेगा । इसलिये उपर्युक्त चारों ही विकल्प मिथ्या हैं, उनमें अनेक वाघायें आती हैं । अत्र प्रसंग पाकर यहां द्रव्यका स्वरूप कहा जाता है ।
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द्रव्य - लक्षण - उपक्रम ---
द्रव्यत्वं किनाम पृष्टचेतीह केनचित् सूरिः ।
प्राह प्रमाणसुनयैरधिगतमिव लक्षणं तस्य ॥ ७१ ॥
अर्थ – किसीने आचार्य से पूछा कि महाराज ! द्रव्य क्या पदार्थ है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य उस का प्रमाण और सुनयोंद्वारा अच्छी तरह मनन किया हुआ लक्षण कहने
लगे ।
* यदि नित्यैकान्त और अनित्यैकान्तका विशेष ज्ञान प्राप्त करना हो तो निम्न लिखित कारिकाओंके प्रकरण में अष्ट सहस्त्रीको देखना चाहिये ।
नित्यस्यैकान्तपक्षेप विक्रिया नोपपद्यते ।
प्रागेव कारकाभावः क प्रमाणं क तत्फलम् ॥ १ ॥ क्षणिकान्तपक्षेपि प्रेत्यभावाद्यसंभवः ।
प्रत्यभिज्ञाद्यभावान कार्यारंभः कुतः फलम् ॥ २ ॥
इसके स्थान में इह होना और 'पृष्टश्वेतीह के स्थान में पृष्टश्श्रेतीव होना विशेष अच्छा है।
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