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________________ अध्याय । ] सुबोधिनी टीका । [ २२१ घाकार है परन्तु है पाषाणकी । उस पाषाणकी प्रतिमामें उन पार्श्वनाथ भगवानके जीवकी जो कि अनन्तगुण धारी - अर्हन हैं (थे) स्थापना करना और व्यवहार करना कि यह प्रतिमा ही पार्श्वनाथ है स्थापना निक्षेप है । भावार्थ-उपर्युक्त उदाहरण तदाकार स्थापनाका है। चावल आदि में जो पहले अरहन्तकी स्थापना की जाती थी * वह अतदाकार स्थापना है । अथवा शतरंजके मोहरोंमें जो घोड़े हाथी पयादे आदिकी स्थापना की जाती है वह अतदाकार स्थापना है । यद्यपि नाम और स्थापना दोनों ही अतद्गुण (गुण रहित) हैं, तथापि दोनोंमें अन्तर है । नाम यदि किसीका जिन रक्खा गया है तो उसे मनुष्य केवल उस नामसे बुलावेंगे । 'जिन' की जो पूज्यता होती है, वह पूज्यता वहां पर नहीं है । परन्तु स्थापनामें जिसकी स्थापना की जाती है, उसका जैसा आदर सत्कार अथवा पूज्यता और गुण स्तवन होता है वैसा ही उसकी स्थापनामें किया जाता है। जैसी जिन (अरहन्त) की पूज्यता मूल जिनमें है वैसी ही उनकी स्थापित मूर्ति में भी है। बस यही अन्तर है । ऋजुनयनिरपेक्षतया सापेक्षं भाविनैगमादिनयैः । छद्मस्थो जिनजीवो जिन इव मान्यो यथात्र तद्द्रव्यम् ॥७४३॥ अर्थ -- ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा नहीं रखनेवाला किन्तु भाविनैगम आदि नयोंकी अपेक्षा रखनेवाला द्रव्य निक्षेप है । जैसे-छद्मस्थ जिनके जीवको साक्षात् जिनके समान समझना । भावार्थद्रव्य निक्षेप तद्गुण होता है, परन्तु पदार्थमें जो गुण आगे होनेवाले हैं अथवा पहले हो चुके हैं उन गुणोंवाला उसे वर्त्तमानमें कहना यही द्रव्यनिक्षेप है जैसे महावीर स्वामी सर्वज्ञ होनेपर जिन कहलाये थे, परन्तु उन्हें अल्पज्ञ अवस्थामें ही जिन कहना, यह भावि द्रव्य निक्षेप है तथा महावीर स्वामीको मोक्ष गए हुए आज २४४४ वर्ष बीत गये परन्तु दिवालीके दिन यह कहना कि आज ही महावीर स्वामी मोक्ष गये हैं, भूत द्रव्यनिक्षेप है । द्रव्यनिक्षेप वर्त्तमान गुणोंकी अपेक्षा नहीं रखता है, इसलिये वह ऋजुसूत्र नयका विषय नहीं है किन्तु भूत और भावि नैगम नयका विषय है । तत्पर्यायो भावो यथा जिनः समवशरण संस्थितिकः । घातिचतुष्टयरहितो ज्ञानचतुष्टययुतो हि दिव्यवपुः ॥ ७४४ ॥ * यहांपर इतना और समझ लेना चाहिये कि हमलोंग प्रतिदिन जो पूजाके पहिले आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण करते हैं वह स्थापना स्थापनानिक्षेप नहीं है क्योंकि उसमें 'यह वही है' ऐसा संकल्प नहीं किया जाता वह तो पूजा वा आदरसत्कारका एक अंग है जो कि पूजामें अवश्य कर्त्तव्य हैं यदि ये आह्वान आदि पूजाके समय न किये जायें तो पूजा में उतने ही अंग कम समझे जाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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