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________________ २२० ] पश्चाध्यायी। [प्रथम हुए संकेतोंका नाम है। वह संकेत कहीं पर तद्गुण होता है और कहीं पर अतद्गुण होता है। नय और निक्षेपमें विषय विषयी सम्बन्ध है, नय विषय करनेवाला ज्ञान है, और निक्षेप उसका विषय भूत पदार्थ है। इसलिये नयोंके कहनेसे ही निक्षेपोंका विवेचन स्वयं होनाता है, अतएव इनके स्वतन्त्र उल्लेखकी आवश्यकता नहीं है । फिर भी यह शंका होसक्ती है कि जब निक्षेप नयका ही विषय है तो फिर चार निक्षेपोंका स्वतन्त्र विवेचन सूत्रों द्वारा ग्रन्थकारोंने क्यों किया है ? इसके उत्तरमें इतना कहना ही पर्याप्त है कि केवल समझानेके अभिप्रायसे निक्षेपोंका निरूपण किया गया है, अन्यथा विषयभूत पदार्थों में ही वे गर्भित हैं। दूसरे भिन्न भिन्न व्यवहार चलाना ही निक्षेपोंका प्रयोजन है इसलिये उस प्रयोजनको स्पष्ट करनेके लिये ग्रन्थकारोंने उनका निरूपण किया है। इस श्लोकमें 'गुणाक्षेपः' पद आया है, उसका अर्थ चारों निक्षेपोंमें इसप्रकार घटित होता है---नाम गौण पदार्थमें अर्थात् अतद्गुण पदार्थमें केवल व्यवहारार्थ किया हुआ आक्षेप । स्थापनामें-अतद्गुण पदार्थमें किया हुआ गुणोंका आक्षेप । द्रव्यमें-भावि अथवा भूत तद्गुणमें वर्तमानवत् किया हुआ गुणोंका आक्षेप । भावमें-वर्तमान तद्गुणमें किया हुआ वर्तमान गुणोंका आक्षेप । इसप्रकार गौणमें आक्षेप अथवा गुणोंका आक्षेप ही निक्षेप है। नाम, स्थापना, द्रव्य ये तीन निक्षेप द्रव्यार्थिक नयके विषय हैं । भावनिक्षेप पर्यायार्थिक नयका विषय है । अन्तर्नयोंकी अपेक्षासे नाम निक्षेप समभिरूढ़ नयका विषय है स्थापना और द्रव्य निक्षेप नैगम नयका विषय है । भाव निक्षेप ऋजुसूत्र तथा एवंभूत नयका विषय है। निक्षेपः स चतुर्धा नाम ततः स्थापना ततो द्रव्यम् । भावस्तल्लक्षणमिह भवति यथा लक्ष्यतेऽधुना चार्थात्॥७४१॥ अर्थ-निक्षेप चार प्रकार है-(१) नाम निक्षेप, (२) स्थापना निक्षेप (३) द्रव्य निक्षेप (४) भाव निक्षेप । अब इन चारोंका लक्षण कहा जाता है । वस्तुन्यतद्गुणे खलु संज्ञाकरणं जिनो यथा नाम । सोऽयं तत्समरूपे तहडिः स्थापना यथा प्रतिमा ॥७४२॥ __ अर्थ-किसी वस्तुमें उसके नामके अनुसार गुण तो न हों, केवल व्यवहार चलानेके लिये उसका नाम रख देना नाम निक्षेप हैं । जैसे किसी पुरुषमें कर्मोके जीतनेका गुण सर्वथर नहीं है, वह मिथ्यादृष्टि है उसको बुलानेके लिये 'जिन' यह नाम रख दिया जाता है । किसी समान आकारवाले अथवा असमान आकारवाले पदार्थमें गुण सो न हों, परन्तु उसमें गुणोंकी बुद्धि रखना और उसका 'यह वही है' ऐसा व्यवहार करना स्थापना निक्षेप है। जैसे--प्रतिमा, जैसे पार्श्वनाथकी प्रतिमाको मंदिरमें हम पूजते हैं, यद्यपि प्रतिमा पुरु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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