SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१८ ] पञ्चाध्यायी। [प्रथम - - स्मरण नहीं होता ऐसा सब वेदानुयायी मानते भी नहीं हैं। पिटकत्रयमें वेदके कर्ताका कुछ लोग स्मरण करते ही हैं । इसलिये वेद पुरुष कृत नहीं है यह बात किसी प्रकार नहीं बनती कुछ कालके लिये यदि वेदको अपौरुषेय भी मान लिया जाय तो भी उसमें सर्वज्ञका अभाव होनेसे प्रमाणता नहीं आती है। सर्वज्ञ वक्ताके मानने पर 'धर्मे चोदनैव प्रमाणम्, अर्थात् धर्मके विषयमें वेद ही प्रमाण है यह बात नहीं बनेगी, क्योंकि सर्वज्ञका वचन भी प्रमाण मानना पड़ेगा, तथा सर्वज्ञ उसका वक्ता मानने पर उस वेदमें पूर्वापर विरोध नहीं रह सकता है, परन्तु उसमें पूर्वापर विरोध है, हिंसाका निषेध करता हुआ भी वह कहीं हिंसाका विधान करता है तथा एक ही वेदका एक अंश एक वेदा पायी नहीं मानता है वह उसे अप्रमाण समझता हुआ उसीके दूसरे अंशको वह प्रमाण मानता है, जिसे वह प्रमाण मानता है उसे ही तीसरा वेदानुयायी अप्रमाण मानता है । यदि वह सर्वज्ञ वक्तासे प्रतिपादित होता तो इस प्रकार पूर्वापर विरोध सर्वथा नहीं होसकता है इसलिये वेदमें प्रमःणता किसी प्रकार नहीं आती। वेदके विषयमें यह कहना कि उसके कर्ताका स्मरण नहीं होता इसलिये वह अनादि अपौरुषेय है, इस कथनके विषयमें पहली बात तो यह है कि नित्य वस्तुके विषयमें ऐसा कहना ही व्यर्थ है, नित्य वस्तु जो होती है उसमें न तो उसके कर्ताका स्मरण ही होता है न अस्मरण ( स्मरणका न होना) ही होता है किन्तु वह अकर्तृक होती है यदि यह कहा जाय कि वेदकी सम्प्रदाय ( वेदका वर्णक्रम, पाठक्रम, उदात्तादिक्रम ) का विच्छेद नहीं है इसीलिये यह कहा जाता है कि उसके कर्ताका स्मरण नहीं होता है तो यह कथन भी ठीक नहीं है, बहुतसे ऐसे वाक्य हैं जिनका विशेष प्रयोजन न होनेके कारण उनके कर्त्ताका स्मरण नहीं रहा है, साथ ही वे अनवच्छिन्न चले आ रहे हैं जैसे--'बटे २ वैश्रवणः वृक्ष वृक्षमें यक्ष (कुबेर) रहता है। तथा "चत्वरे २ ईश्वरः । पर्वते पर्वते रामः सर्वत्र मधुसूदनः। साते भवतु सुप्रीता देवी गिरिनिवासिनी, विद्यारंभ करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा ” अर्थात् घर २ में ईश्वर है, पर्वत पर्वतमें राम है. सर्वत्र कृष्ण है, तेरे ऊपर पार्वती देवी प्रसन्न हों, मैं विद्यारंभ करूंगा, मेरी सदा सिद्धि हो, इत्यादि अनेक वाक्य अविच्छिन्न हैं, परन्तु उनको वेद वादियोंने भी अपौरुषेय नहीं माना है । दूसरी बात यह है कि वेदके कर्त्ताका अभाव किस प्रकार कहा जा सक्ता है पौराणिक लोग वेदका कर्ता ब्रह्माको बतलाते हैं । वे कहते हैं कि वक्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिमुताः ' अर्थात् ब्रह्माके मुखोंसे वेद निकले हैं । 'यो वेदांश्च प्रहिणोति, इत्यादि वेदवाक्य ही वेदके कर्ताको सिद्ध करते हैं। सबसे बड़ी वात यह है कि उसमें ऋषियोंके नाम भी आये हैं। इसलिये या तो वेदवादी उन ऋषियोंको अनादिनिधन माने या वेदको अनादि न मानें । दोनोंमेंसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy