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________________ [ २१७ अध्याय | ] सुबोधिनी टीका । जितने भी शब्द हैं सभी वैदिक हो जायगे, फिर वेद ही क्यों अपौरुषेय (पुरुषका नहीं बनाया हुआ) कहा जाता है ? यदि उत्तर पक्ष स्वीकार किया जाय तो प्रश्न होता है कि उन विशेष आनुपूर्वीरूप शब्दोंका अर्थ किसीका समझा हुआ है या नहीं ? यदि नहीं, तब तो विना ज्ञानके उन वेद वाक्योंमें प्रमाणता नहीं आ सकती है, यदि किसीका समझा हुआ है तो उन वेद वाक्योंके अर्थको समझानेवाला-व्याख्याता सर्वज्ञ है या अल्पज्ञ ? यदि सर्वज्ञ है तो वेदके समान अतीन्द्रिय पदार्थोके जाननेवाले सर्वज्ञके वचन भी प्रमाणरूप क्यों न माने जायँ, ऐसी अवस्थामें वेदमें सर्वज्ञ पुरुष कृत ही प्रमाणता आती है इसलिये उसका अपौरुषेयत्व प्रमाण सूचक नहीं सिद्ध होता । यदि वेदका व्याख्याता अल्पज्ञ है तो उस वेदके कठिन२ वाक्योंका उलटा भी अर्थ कर सकता है, क्योंकि वाक्य स्वयं तो यह कहते नहीं हैं कि हमारा अमुक अर्थ है, अमुक नहीं है, किन्तु पुरुषोंद्वारा उनके अर्थोका बोध किया जाता है। यदि वे पुरुष अज्ञ और रागादि दोषोंसे विशिष्ट हैं तो वे अवश्य कुछका कुछ निरूपण कर सकते हैं । कदाचित् यह कहा जाय कि उसके व्याख्याता अल्पज्ञ भी हों तो भी वेदोंके अर्थकी व्याख्यान परम्परा बराबर ठीक चली आनेसे वे उनका यथार्थ निरूपण कर सकते हैं, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ठीक परम्परा चली आने पर भी अतीन्द्रिय पदार्थों में अल्पज्ञोंकी संशय रहित प्रवृत्ति (व्याख्यानमें) नहीं हो सकती है, दूसरी बात यह है कि यदि वेदार्थ अनादिपरम्परासे ठीक चला आता है तो मीमांसकादि भावना, विधि, नियोगरूप भिन्न २ अर्थ प्रतिपत्तिको क्यों प्रमाण मानते हैं ? इसलिये वेदको अनादि परम्परागत-अपौरुषेय मानना प्रमाण सिद्ध नहीं है। वेदको अनादि मानने में ऐसा भी कहा जाता है कि जिस प्रकार वर्तमान कालमें कोई वेदोंको बनानेवाला नहीं है उस प्रकार भूतकाल और भविष्यत् कालमें भी कोई नहीं हो सकता है । परन्तु यह कोई युक्ति नहीं है, विपक्षमें ऐसा भी कहा जा सकता है कि जैसे वर्तमानमें श्रुतिका बनानेवाला कोई नहीं है वैसे भूत भविष्यत् कालमें भी कोई नहीं हो सकता है, अथवा जैसे वर्तमानकालमें वेदोंका कोई जानकार नहीं है वैसे उनका जानकार भूत भविष्यत् कालमें भी कोई नहीं हो सकता है इसी प्रकार ऐसा कहना भी कि वेदका अध्ययन वेदाध्यायन पूर्वक है वर्तमान अध्ययनके समान, मिथ्या ही है। कारण विपक्षमें भी कहा जा सकता है कि भारतादिका अध्ययन भारताध्यायन पूर्वक है । वर्तमान अध्ययनके समान । इसलिये उपर्युक्त कथनसे भी वेदमें अनादिता सिद्ध नहीं होती है। यदि यह कहा जाय कि वेदके कर्ताका स्मरण नहीं होता है इसलिये उसके कर्ताका अभाव कह दिया जाता है ऐसा कहना भी बाधित है क्योंकि ऐसी बहुतसी पुरानी वस्तुएं हैं जिनके कर्त्ताका स्मरण नहीं होता है, तो क्या वे भी अपौरुषेय मानी जायंगी ? यदि नहीं तो वेद ही क्यों वैसा माना जाय ? तथा वेदके कर्ताका पू० २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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