________________
२१२ ]
पञ्चाध्यायी ।
I
प्रकार कहते हैं । भावार्थ – जैनियोंने उपर्युक्त कथनानुसार ज्ञानको ही प्रमाण मानकर उसके प्रत्यक्ष परोक्ष दो भेद किये हैं परन्तु अन्य दर्शनवाले ऐसा नहीं मानते हैं ? कोई वेदको ही प्रमाण मानते हैं
वेदाः प्रमाणमिति किल वदन्ति वेदान्तिनो विदाभासाः । यस्मादपौरुषेयाः सन्ति यथा व्योम ते स्वतः सिद्धाः ॥ ७२१ ॥
अर्थ - ज्ञानाभासी ( मिथ्याज्ञानी ) वेदान्त मतवाले कहते हैं कि वेद ही प्रमाण हैं । और वे पुरुष बनाये हुए नहीं है, किन्तु आकाशके समान स्वतः सिद्ध हैं । अर्थात् जिसप्रकार आकाश अनादिनिधन स्वयं सिद्ध है किसीने उसे नहीं बनाया है उसी प्रकार वेद भी अनादिनिधन स्वयं सिद्ध हैं ।
कोई प्रभाकरणको प्रमाण मानते हैं
अपरे प्रमानिदानं प्रमाणमिच्छन्ति पण्डितम्मन्याः । समयन्ति सम्यगनुभव साधनमिह यत्प्रमाणमिति केचित् ॥ १२२ ॥ अर्थ - दूसरे मतवाले ( नैयायिक) अपने आपको पण्डित मानते हुए प्रमाणका स्वरूप यह कहते हैं कि जो प्रमाका निदान हो वह प्रमाण है अर्थात् प्रमा नाम प्रमाणके फलका है। उस फलका जो साधकतम कारण है वही प्रमाण है ऐसा नैयायिक कहते हैं । दूसरे कोई ऐसा भी कहते हैं कि जो सम्यग्ज्ञानमें कारण पड़ता हो वही प्रमाण है । ऐसा प्रमाणका स्वरूप माननेवालोंमें वैशेषिक बौद्ध आदि कई मतवाले आजाते हैं जो कि आलोक, पदार्थ, सन्निकर्षादिको प्रमाण मानते हैं ।
इत्यादि वादिवृन्दैः प्रमाणमालक्ष्यते यथारुचि तत् । आप्ताभिमानदग्धैरलब्धमानैरतीन्द्रियं वस्तु ॥ ७२३ ॥
अर्थ -- जिन्होंने अतीन्द्रिय वस्तुके स्वरूपको नहीं पहचाना है, जो वृथा ही अपने आपको आप्तपनेके अभिमानसे जला रहे हैं ऐसे अनेक वादीगण प्रमाणका स्वरूप अपनी इच्छानुसार कहते हैं ।
वेदान्तादिवादियों के माने हुए प्रमाणों में दूषणप्रकृतमलक्षणमेतल्लक्षणदोषैरधिष्ठितं यस्मात् ।
स्यादविचारितरम्यं विचार्यमाणं खपुष्पवत्सर्वम् ॥ ७२४ ॥
अर्थ - जिन प्रमाणोंका ऊपर उल्लेख किया गया है वे सब दूषित हैं, कारण जो प्रमाणका लक्षण होना चाहिये वह लक्षण उनमें नाता ही नहीं है और जो कुछ उनका क्षण किया गया है वह दोषोंसे विशिष्ट ( सहित ) है तथा अविचारित रम्य है । उन समस्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org