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सुबोधिनी टीका।
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स्पष्ट कर दिया गया है कि यद्यपि मतिश्रुत परोक्ष होते हैं तथापि वे इन्द्रिय और मनसे होते हैं, मन अमूर्तका भी जाननेवाला है । जिस समय वह केवल अमूर्त पदार्थको ही जान रहा है अर्थात् केवल स्वात्माका ही ग्रहण कर रहा है उस समय वह मन रूप ज्ञान भी अमूर्त ही है । इसीलिये वह अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष है । इन्द्रियां मूर्त पदार्थका ही ग्रहण करती हैं इसलिये स्वात्म प्रत्यक्षमें उनका उपयोग ही नहीं है । इसीको पुनः स्पष्ट करते हैं:
नासिखमेतदुक्तं तदिन्द्रियानिन्द्रियोद्भवं सून्नात् । स्यान्मतिज्ञाने यत्तत्पूर्व किल भवेच्छूतज्ञानम् ॥ ७१७ ॥ अयमों भावमनो ज्ञानविशिष्टं स्वयं हि सदभूतम् ।
तेनात्मदर्शनसिह प्रत्यक्षमतीन्द्रियं कथं न स्यात् ॥ ७१८॥
अर्थ----यह बात असिद्ध भी नहीं है, सूत्रद्वारा यह बतलाया जा चुका है कि मतिज्ञान तथा उस मतिज्ञान पूर्वक श्रुतज्ञान दोनों ही इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होते हैं । इतना विशेष है कि भावमन विशेष (अमूर्त) ज्ञान विशिष्ट जब होता है तब वह स्वयं अमूर्त स्वरूप होजाता है । उस अमूर्त---मनरूप ज्ञानद्वारा आत्माका प्रत्यक्ष होता है इसलिये वह प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय क्यों न हो ? अर्थात् केवल स्वात्माको जाननेवाला जो मानसिक ज्ञान है वह अवश्य अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष है।
अपि चात्मसंसिद्धयै नियतं हेतू मतिश्रुती ज्ञाने । प्रान्त्यद्वयं विना स्यान्मोक्षो न स्याहते मतिद्वैतम् ॥ ७१९ ॥
अर्थ-तथा आत्माकी भले प्रकार सिद्धिके लिये मतिश्रुत ये दो ही ज्ञान नियत कारण हैं । कारण इसका यह है कि अवधि और मनःपर्यय ज्ञानोंके विना तो मोक्ष होजाता हैं परन्तु मतिश्रुतके विना कदापि नहीं होता । भावार्थ-यह नियम नहीं है कि सब ज्ञानोंके होनेपर ही केवलज्ञान उत्पन्न हो । किसीके अवधि मनःपर्यय नहीं भी होते हैं तो भी उसके केवलज्ञान होजाता है। परन्तु मतिश्रुत तो प्राणीमात्रके नियमसे होते हैं । इसलिये सुमति सुश्रुत ये दो ही आत्माकी प्राप्तिमें मूल कारण हैं । अतएव मिथ्यात्वके अनुदयमें विशेष मतिज्ञानद्वारा स्वात्माका साक्षात्कार हो ही जाता है ।
शङ्गाकार--- ननु जैनानामेतन्मतं मतेष्वेव नापरेषां हि । विप्रतिपत्तौ बहवः प्रमाणमिदमन्यथा वदन्ति यतः ॥ ७२० ।।
वार्थ-सम्पूर्ण मतोंमें जैनियोंके मतमें ही प्रमाणकी ऐसी व्यवस्था है, दूसरोंके यहां ऐसी नहीं है । यह विषय विवादग्रस्त है, क्योंकि बहुतसे मत प्रमाणका स्वरूप दूसरे ही
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