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________________ 8 ] पञ्चाध्यायी । कथनक्रम - सर्वोपि जीवलोकः श्रोतुं कामो वृषं हि सुगमोक्त्या । विज्ञप्तौ तस्य कृते तत्रायमुपक्रमः श्रेयान् ॥ ६ ॥ अर्थ- सम्पूर्ण जनसमूह धर्मको सुनना चाहता है, परन्तु सरल रीति से सुनना चाहता है । यह बात सर्वविदित है । इसके लिये हमारी यह (नीचे लिखी हुई) कथन शैली अच्छी होगीसति धर्मिणि धर्माणां मीमांसा स्यादनन्यथा न्याय्यात् । साध्यं वस्त्वविशिष्टं धर्मविशिष्टं ततः परं चापि ॥ ७ ॥ अर्थ-धर्मीका निरूपण होनेपर ही धर्मेका विशेष विचार किया जा सक्ता है। इसके सिवाय और कोई नीति नहीं हो सक्ती । इसलिये पहले सामान्य रूपसे ही वस्तुको सिद्ध करना चाहिये । उसके पीछे धर्मोकी विशेषता के साथ सिद्ध करना चाहिये । भावार्थ - अनेक धर्मे समूहका नाम ही धर्मी है । धर्म, गुण, ये दोनोंही एकार्थ हैं जब किसी खास गुणका विवेचन किया जाता है तब वह विवेचनीय गुण तो धर्म कहलाता है और बाकी अनन्त गुणोंका सुमुदाय धर्मी (पिण्ड द्रष ) कहलाता है । इसी प्रकार हरएक गुण चानी न्याय से धर्म कहलाता है, उससे बाकीके सम्पूर्ण गुणों का समूह, धर्मी कहलाता है । धर्मकी मीमांसा (विचार) तभी हो सक्ती है जब कि पहले धर्म समुदाय रूप धर्मीका बोध हो जाय । जिस प्रकार शरीरका परिज्ञान होनेपर ही शरीरके प्रत्येक अंगका वर्णन किया जा सक्ता है। इसलिये यहां पर पहले धर्मो का विचार न करके धर्मीका ही विचार किया जाता है । सामान्य विवेचनाके पीछे ही विशेष विवेचना की जा सक्ती है । Jain Education International [ प्रथम तत्त्वका स्वरूप तत्त्वं सल्लाक्षणिकं सन्मात्रं वा यतः स्वतः सिडम् । तस्मादनादिनिधनं स्वसहायं निर्विकल्पञ्च ॥ ८ ॥ अर्थ - तत्त्व (वस्तु) सतू लक्षणवाली है । अथवा सत् स्वरूप ही है । और वह स्वतः सिद्ध है इसीलिये अनादि निधन है । अपनी सहायता से ही बनता और बिगड़ता है । और वह निर्विकल्प (वचनातीत ) भी है । भावार्थ- वस्तु सत् लक्षणवाला है, यह प्रमाण लक्षण है । *प्रमाणमें एक गुणके द्वारा सम्पूर्ण वस्तुका ग्रहण होता है। वस्तुमें अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व आदि अनन्त गुण हैं । अस्तित्व गुणका नाम ही सत् है । सत् कहनेसे अस्तित्व गुणका ही ग्रहण होना चाहिये परन्तु यहांपर सत् कहने से सम्पूर्ण वस्तुका ग्रहण होता है । इसका कारण यही है कि अस्तित्व आदि सभी गुण अभिन्न हैं । अभिन्नता के कारण ही सतकें कहनेसे सम्पूर्ण गुण समुदायरूप वस्तुका * एकगुणमुखेनाऽशेषवस्तुकथनम्प्रमाणाधीनमिति वचनात् ! For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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