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________________ अध्याय। सुबोधिनी टीका। [ २०७ - - - प्रतिबन्ध रहते हुए भी दूसरी ओर ठहरे हुए मनुप्यके कानमें चला जाता है उसी प्रकार चक्षु भी कांचके भीतर अपनी किरणें डाल देता है। परन्तु सूक्ष्म विचार करनेपर यह विपक्ष कथन खण्डित हो जाता है। शब्द विना खुला हुआ प्रदेश पाये बाहर जाता ही नहीं है। मकानके भीतर रहकर हम भित्तिका प्रतिबन्ध समझते हैं परन्तु उसमें शब्दके बाहर निकलनेके बहुतसे मार्ग खुले रहते हैं जैसेकिवाड़ोंकी दरारें, खिड़कियोंकी सदें झरोखे आदि । यदि सर्वथा बन्द प्रदेश हो तो शब्द भी बाहर नहीं जाता है । पानीमें डूब जानेपर यदि बाहरसे कोई मनुष्य कितना ही जोरसे क्यों न चिल्लावे परन्तु पानीमें डूबा हुआ मनुष्य उसका शब्द नहीं सुनता है यह अनुभव की हुई बात है । यदि शब्द प्रतिबन्ध रहनेपर भी बाहर चला जाय तो भित्तिके भीतर धीरे २ बात करनेपर क्यों नहीं दूसरी ओर सुनाई पड़ती है । इसका कारण यही है वह शब्द वर्गणा वहींपर दीवालसे टकराकर रह जाती हैं । इसलिये चक्षु पदार्थसे सम्बन्ध नहीं करता है किन्तु दूरसे ही उसे जानता है । मन भी ऐसा ही है । इन दोनोंके साथ संबंधका अर्थ योग्य देश प्राप्त करना चाहिये । * चारों ही ज्ञान परोक्ष हैंछद्मस्थावस्थायामावरणेन्द्रियसहायसापेक्षम् । ___ यावज्ज्ञानचतुष्टयमर्थात् सर्वं परोक्षमिववाच्यम् ॥ ७०१॥ अर्थ--छद्मस्थ-अल्पज्ञ अवस्थामें जितने भी ज्ञान हैं-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय चारों ही आवरण और इन्द्रियोंकी सहायताकी अपेक्षा रखते हैं । इसलिये इन चारों ही ज्ञानोंको परोक्षके समान ही कहना चाहिये । अर्थात् मतिश्रुत तो परोक्ष कहे ही गये हैं परन्तु अवधि मनःपर्यय भी इन्द्रिय आवरणकी अपेक्षा रखते हैं. इसलिये वे भी परोक्ष तुल्य ही हैं। अवधिमनःपर्ययविद्वैतं प्रत्यक्षमेकदेशत्वात् । केवलमिदनुपचारादथ च विवक्षावशान्न चान्वर्थात् ॥७०२॥ अर्थ-अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान ये दो ज्ञान एक देश प्रत्यक्ष कहे गये हैं, परन्तु इनमें यह प्रत्यक्षता विवक्षावश केवल उपचारसे ही घटती है। वास्तवमें ये प्रत्यक्ष नहीं है। तत्रोपचारहेतुर्यथा मतिज्ञानमक्ष नियमात् । . अथ तत्पूर्व श्रुतमपि न तथावधिचित्तपर्ययं ज्ञानम् ॥ ७०३ ॥ * नैयायिक तथा वैशेषिक दर्शनवाले चक्षुको प्राप्यकारी अर्थात् पदार्थों के पास जाने. वाला बतलाते हैं परन्तु ऐसा उनका मानना उपर्युक्त युक्तियोंसे सर्वथा बाधित है । चक्षुको प्राप्यकारी माननेमें और भी अनेक देष आते हैं जिनका विस्तृत वर्णन प्रमेयकमल मार्तण्डमें किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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