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________________ २०६ ] पश्चाध्यायी। [ प्रथम परोक्षका स्वरूपआभिनिवोधिकबोधो विषयविषयिसन्निकर्षजस्तस्मात् । भवति परोक्षं नियमादपि च मतिपुरस्सरं श्रुतं ज्ञानम् ॥१०॥ अर्थ-आभिनिबोधिक बोध अर्थात् मतिज्ञान पदार्थ और इन्द्रियोंके सन्निकर्षसे होता है इसलिये वह नियमसे परोक्ष है, और मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है, वह भी परोक्ष है । भावार्थ-स्थूल वर्तमान योग्य क्षेत्रमें ठहरे हुए पदार्थको अभिमुख कहते हैं, और जो विषय जिस इन्द्रियका नियत है उसे नियमित कहते हैं । इन्द्रियोंके द्वारा जो ज्ञान होता है वह स्थूल पदार्थका होता है, सूक्ष्म परमाणु आदिका नहीं होता है। साथ ही योग्य देशमें (जितनी निकटता या दूरता आवश्यक है) सामने स्थित पदार्थका ज्ञान होता है । और चक्षुका रूप विषय नियत है, रसनाका रस नियत है ऐसे ही पांचों इन्द्रियोंका नियत विषय है। इनके सिवा जो मनके द्वारा बोध होता है वह सव मतिज्ञान कहलाता है। अभिमुख नियमित बोधको ही आभिनिवोधिक बोध कहा गया है। यह नाम इन्द्रियोंकी मुख्यतासे कहा गया है। मतिज्ञान परोक्ष है श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है तथा मनकी अपेक्षा मुख्यतासे रखता है इसलिये वह भी परोक्ष है । इतना विशेष है कि जो मतिज्ञानको विषय विषयीके सन्निकर्ष सम्बन्धसे उत्पन्न बतलाया गया है उसका आशय यह है कि स्पर्शन, रसन, घाण, श्रोत्र ये चार इन्द्रियां तो पदार्थका सम्बन्ध कर बोध करती हैं, परन्तु चक्षु और मन ये दो इन्द्रियां पदार्थको दूरसे ही जानती हैं । न तो इनके पास पदार्थ ही आता है और न ये ही पदार्थके पास पहुंचती हैं । मनसे हजारों कोशोंमें ठहरे हुए पदार्थोंका बोध होता है । इसलिये वह तो पदार्थका विना सम्बन्ध किये ही ज्ञान करता है यह निर्णीत है । चक्षु भी यदि सम्बन्धसे पदार्थका बोध करता तो नेत्रमें लगे हुए अंजनका बोध स्पष्ट होता, परन्तु चक्षुसे अति निकटका पदार्थ नहीं देखा जाता है। पुस्तक को यदि चक्षुके अति निकट रख दिया जाय तो चक्षु उसे नहीं देखता है । दूसरी वात यह भी है कि नेत्रको खोलते ही सामनेके वृक्ष चन्द्रमा आदि सबोंको वह एक साथ ही देख लेता है, यदि वह पदार्थोका सम्बन्ध करके ही उनका बोध करता तो जैसे स्पर्शन इन्द्रिय जैसा २ स्पर्श करती है बैसा २ ही क्रमसे बोध करती है उसी प्रकार चक्षु भी पहले पासके पदार्थोंको देखता, पीछे दूरवर्ती पदार्थोको क्रमसे जानता। एक साथ सबोंका बोध सम्बन्ध माननेसे कदापि नहीं बन सक्ता है । तीसरी बात यह है कि यदि पदार्थोके सम्बन्धसे ही चक्षु पदार्थोका बोध करता तो एक बड़े मोटे काचके भीतर रक्खे हुए पदार्थोंको चक्षु नहीं देख सक्ता, परन्तु कितना ही मोटा कांच क्यों न हो उसके भीतरके पदार्थोंका चक्षु वोध कर लेता है । यदि इसके विपक्षमें यह कहा जाय कि शब्द जिस प्रकार भित्तिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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