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पश्चाध्यायी।
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तथाफलमस्यानुभव: स्यात्ममक्षमिव सर्ववस्तुजातस्य ।
आख्या प्रमाणमिति किल भेदः प्रत्यक्षमथ परोक्षं च ॥६७८॥
अर्थ-सम्पूर्ण वस्तुमात्रका प्रत्यक्षके समान अनुभव होना ही प्रमाणका फल है । प्रमाणका नाम प्रमाण है । प्रत्यक्ष और परोक्ष उसके दो भेद हैं। भावार्थ-उपर्युक्त कथनसे प्रमाण और नयमें अन्तर सिद्ध होगया । प्रमाण वस्तुके सर्व धर्मोको विषय करता है। नय वस्तुके एक देशको विषय करता है । इसी बातको सर्वार्थसिद्धिकारने कहा है कि “ सकलादेशः प्रमाणाधीनम्, विकलादेशो नयाधीनम्" इसी प्रकार प्रमाणका लक्षण जुदा है। एक गुणके द्वारा समस्त वस्तुके कथनको प्रमाण कहते हैं, प्रमाणसे जाने हुए पदार्थके परिणाम विशेषके कथनको नय कहते हैं । प्रमाणका फल समस्त वस्तुबोध है । नयका फल वस्तुका एकदेश बोध है । शब्द भेद भी है । प्रमाण और नय ये दो नाम भी जुदे २ हैं। प्रमाणके प्रत्यक्ष परोक्ष आदि भेद हैं । नयके द्रव्य, पर्याय आदि भेद हैं । इसलिये प्रमाण और नय दोनोंका ही स्वरूप जुदा २ है । उनमें से किसी एकका लोप करना सर्व लोपके प्रसंगका हेतु है । नयके अभावमें प्रमाण व्यवस्था नहीं बन सक्ती है, और प्रमाणके अभावमें नय व्यवस्था भी नहीं बन सक्ती है ।
प्रमाण नयमें विषय भेदसे भेद हैज्ञानविशेषो नय इति ज्ञानविशेषः प्रमाणमिति नियमात् । उभयोरन्तर्भेदो विषयविशेषान्न वस्तुतो भेदः ॥ ६७९ ।।
अर्थ-नय भी ज्ञानविशेष है, और प्रमाण भी ज्ञानविशेष है। दोनोंमें विषय विशेषकी अपेक्षासे ही भेद है, वास्तवमें ज्ञानकी अपेक्षासे दोनोंमें कुछ भी भेद नहीं है ।
भावार्थ-नय और प्रमाण दोनों ही ज्ञानात्मक हैं परन्तु दोनोंका विषय जुदार है इसी लिये उनमें भेद है । अब विषयभेदको ही प्रकट किया जाता है
स यथा विषयविशेषो द्रव्यैकांशो नयस्य योन्यतमः ।
सोप्यपरस्तदपर इह निखिलं विषयः प्रमाणजातस्य ॥६८०॥
अर्थ-प्रमाण और नयमें विषयभेद इस प्रकार है-द्रव्यके अनन्त गुणोंमेंसे कोई सा विवक्षित अंश नयका विषय है। वह अंश तथा और भी सब अंश अर्थात् अनन्त गुणात्मक समस्त ही वस्तु प्रमाणका विषय है।
आशंका और परिहार-- यदनेकनयसमूहे संग्रहकरणादनकेधर्मत्वम् । तत्सदपि न सदिव यतस्तदनेकत्वं विरुद्धधर्ममयम ॥ ६८१॥
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