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________________ - ~~ ~ ~~ ~~ ~~ ~ ~ सुबोधिनी टीका। [ १९५ ____निश्चयनयको अनेक कहनेवाले ठीक नहीं हैं-- एतेन हतास्ते ये स्वात्मप्रज्ञापराधत्तः केचित् । अप्येकनिश्चयनयमनेकमिति सेवयन्ति यथा ॥३५९॥ अर्थ-इस कथनसे वे पुरुष खण्डित किये गये जो कि अपने ज्ञानके दोषसे एक निश्चय नयको अनेक समझते हैं । कोई कोई अज्ञानी निश्चय नयके इसप्रकार भेद कहते हैं शुद्धद्रव्यार्थिक इति स्यादेकः शुद्धनिश्चयो नाम । अपरोऽशुद्धद्रव्यार्थिक इति तदशुद्धनिश्चयो नाम ॥६६०॥ अर्थ-एक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है, उसीका नाम शुद्ध निश्चय नय है। दूसरा अशुद्धद्रव्यार्थिक नय है उसका नाम अशुद्ध निश्चय नय है। ऐसे निश्चय नयके दो भेद हैं । इत्यादिकाश्च वहवो भेदा निश्चयनयस्य यस्य मते। सहि मिथ्यादृष्टित्वात् सर्वज्ञाज्ञानमानितो नियमात् ॥३६१।। अर्थ---और भी बहुतसे भेद निश्चय नयके जिसके मतमें हैं वह मिथ्यादृष्टि है। इसीलिये वह नियमसे सर्वज्ञकी आज्ञाका उलङ्घन करता है, अर्थात् निश्चय नयके शुद्ध अशुद्ध आदि भेद कुछ भी नहीं हैं ऐसा जैन सिद्धान्त है, वह केवल निषेधात्मक एक है। जो उसके भेद करता है वह सर्वज्ञकी आज्ञाका उलङ्घन करता है। अतएव वह मिथ्यादृष्टि है।* इदमत्र तु तात्पर्यमधिगन्तव्यं चिदादि यवस्तु। व्यवहारनिश्चयाभ्यामविरुद्धं यथात्मशुध्द्यर्थम् ॥ ६६२ ॥ * पञ्चाध्यायीकारका निरूपण स्वसमयकी अपेक्षासे है इसी लिये दूसरोंने जो शुद्ध द्रव्यार्थिक अशुद्ध द्रव्यांर्थिक भेद किये हैं उनको इन्होंने व्यवहारनयमें ही गर्मित किया है। आलापपद्धतिकारने क्रोधादि भावोंको आत्माके भाव अशुद्ध द्रव्याथिक नयसे बतलाये हैं, तथा आत्माके दर्शन ज्ञानादि गुण हैं यह भेदसापेक्ष कल्पना भी उक्त ग्रन्यकारने अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे बतलाई है, अथबा श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने द्रव्यसंग्रहमें रागादि भावों का कर्ता जीवको अशुद्ध निश्चयनयसे कहा है । पञ्चाध्यायीकारने क्रोधादि भावोंको अनुपचरित-असद्भत व्यवहारनय तथा उपचरित-असद्भूत व्यवहारनयसे बतलाया है, तथा जीवके ज्ञानदर्शनादि गुण हैं यह कथन सद्भूत न्यवहारनयसे किया है। यह इतना बड़ा भेद केवल अपेक्षाका भेद है । पंचाध्या कारने स्वतन्य की अपक्षासे निरूपण किया है। स्वसनयकी मात्र से जीवक क्रोधादि भाव कह । वास्तवमें ।ममा है । सूक्ष्महाटेसे विच र जय लोंका भी कथन एक ही प्रतीत होते है क्योंकि सर्वे का कथन अपच । ।नावमा है अक्षा पर निर्भर है । जो कथन एक दृष्टि : मिथ प्रतीत होता है ही दूसरी दृत ठ. मिशा जा।। इसलिये विना नथ विभाग के समझे जैन धर्मकी यथाथताका बोध हो ही नहीं सका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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