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पञ्चाध्यायी।
अर्थ-ऊपर जो शंका की गई है वह ठीक नहीं है कारण वैसा माननेमें असंभव दोष आता है। कोई भी नय निरपेक्ष नहीं हुआ करता है, न हो सक्ता है । क्योंकि विधिके होनेपर प्रतिषेधका होना भी अवश्यंभावी है, और प्रतिषेधके होनेपर विधिका होना भी प्रसिद्ध है । भागाथ----नय वस्तुके एक अंशको विषय करता है, इसलिये वह एक-विवक्षित अंशका विवेचन करता हुआ दूसरे अंशकी अपेक्षा अवश्य रखता है। अन्यथा निरपेक्ष अवस्थामें उसे नय ही नहीं कह सक्ते। विधिकी विवक्षामें प्रतिषेधकी सापेक्षता और प्रतिषेधकी विवक्षामें विधिकी सापेक्षताका होना आवश्यक है । इसलिये व्यवहार और निश्चयनयमें परस्पर सापेक्षता ही है।
शंकाकार-- ननु च व्यवहारनयो भवति यथाऽनेक एव सांशत्वात ।
अपि निश्चयो नयः किल तबदनेकोऽथ चैककस्त्विति चेत् ।६५६।
अर्थ-~-जिस प्रकार अनेक अंश सहित होनेसे व्यवहारनय अनेक ही है, उसी प्रकार व्यवहारनयके समान निश्चयनय भी एक एक मिलाकर नियमसे अनेक है ऐसा माना जाय तो?
उत्तरनैवं यतोस्त्यनेको नैकः प्रथमोप्यनन्तधर्मत्वात् ।
न तथेति लक्षणत्वादस्त्येको निश्चयो हि नानेकः ॥६५७॥
अर्थ---उपर्युक्त कहना ठीक नहीं है, कारण व्यवहारनय तो अनन्तधर्मात्मक होनेसे अनेक है, वह एक नहीं है । परन्तु निश्चनय अनेक नहीं है, क्योंकि उसका लक्षण 'न तथा' है अर्थात् जो कुछ व्यवहारनय कहता है उसका निषेध करना, कि (पदार्थ) वैसा नहीं है । यही निश्चयनयका लक्षण है, इसलिये कितने ही धर्मोके विवेचन क्यों न किये जायें, सबोंका निषेध करना मात्र ही निश्चयनयका एक कार्य है अतएव वह एक ही है।
दृष्टान्त- - संदृष्टिः कनकत्वं ताम्रोपाधेनिवृत्तितो यादृक् ।
अपरं तदपरमिह वा रुक्मोपानिवृत्तितस्तादृक् ॥६५८॥
अर्थ-निश्चयनय क्यों एक है इस विषयमें सोनेका दृष्टान्त भी है । सोना ताकी उपाधिकी निवृत्तिसे जैसा है, वैसा ही चांदीकी उपाधिकी निवृत्तिसे भी है, अथवा और
और अनेक उपाधियोंकी निवृत्तिसे भी वैसा ही सोना है, अर्थात् सोनेमें जो तावाँ, पीतल, चाँदी, कालिमा आदि उपाधिया हैं वे अनेक हैं परन्तु उनका अभाव होना अनेक नहीं है , किसी उधाधिका अभाव क्यों न हो वह एक अभाव ही रहेगा । हरएक उपाधिकी निवृत्तिमें सोना सदा सोना ही रहेगा।
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