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१९२ ] पश्चाध्यायी।
[प्रथम अर्थ-वह स्वात्मानुभूतिकी महिमा इसप्रकार है कि सविकल्पज्ञान होनेपर निश्चय नय उस विकल्पका निषेध करता है। परन्तु जहां पर न तो विकल्प ही है और न निषेध - ही है वहां पर चिदात्मानुभूति मात्र है।
दृष्टान्त
दृष्टान्तोपि च महिषध्यानाविष्टो यथा हि कोपि नरः।
महिषोयमहं तस्योपासक इति नयावलम्वी स्यात् ॥ ६४९॥ चिरमचिरं वा यावत् स एव दैवात् स्वयं हि महिषात्मा। महिषस्यैकस्य यथा भवनान् महिषानुभूतिमात्रं स्यात् ॥६५०॥ ___ अर्थ-स्वात्मानुभूतिके विषयमें दृष्टान्त भी है, जैसे-कोई पुरुष महिषके ध्यानमें आरूढ़ है । ध्यान करते हुए वह यह समझता है कि यह महिष (मैंसा) है और मैं उसकी उपासना (सेवा-ध्यान) करनेवाला हूं । इसप्रकारके विकल्पको लिये हुए जब तक उसका ज्ञान है। तब तक वह नयका अवलम्बन करनेवाला है । बहुत काल तक अथवा जल्दी ही ध्यान करते २ जिस समय वह दैव वश * स्वयं महिषरूप वन जाता है तो उस समय वह केवल एक .. महिषका ही अनुभव करता है, वही महिषानुभूति है । भावार्थ-महिषका ध्यान करनेवाला जब तक यह विकल्प करता है कि यह महिष है मैं उसका उपासक हूं तब तक तो वह विकस्पात्मक नयके अधीन है, परन्तु ध्यान करते २ जिस समय उसके ज्ञानसे यह उपर्युक्त विकल्प दूर हो जाता है केवल महिष रूप अपने आपको अनुभवन करने लगता है उसी समय उसके महिषानुभूति होती है। इस प्रकारकी अनुभूतिमें फिर उपास्य उपासकका भेद नहीं रहता है आत्मा जिसे पहले ध्येय बना कर स्वयं ध्याता बनता है, अनुभूतिके समय ध्याता ध्येयका विकल्प नहीं रहता है किंतु ध्याता स्वयं ध्येयरूप होकर तन्मय हो जाता है इसीलिये स्वानुभूतिकी अपार महिमा है।
स्वात्मध्यानाविष्टस्तथेह कश्चिन्नरोपि किल यावत् । अयमहमात्मा स्वयामिति स्यामनुभविताहमस्यनयपक्षः ॥ ६५१॥ चिरमाचिरं वा दैवात् स एव यदि निर्विकल्पश्च स्यात् । स्वयमात्मेत्यनुभवनात् स्थादियमात्मानुभूतिरिह तावत् ॥ ६५२॥
अर्थ--उसी प्रकार यदि कोई पुरुष अपने आत्माके ध्यान करनेमें आरूढ़ है, ध्यान करते हुए वह विकल्प उठाता है कि मैं यह आत्मा हूं और मैं ही स्वयं उसका अनुभवन
* दैववशका आशय यह नहीं है कि वह वास्तवमें महिषकी पर्यायको धारण करलेता हो, किन्तु यह है कि पुण्योदयवश यदि ध्यानकी एकाग्रता हो जाय तो।
__ दाष्टान्त
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