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१९. ] पञ्चाध्यायी।
[प्रथम शंकाकारननु निश्चयस्य वाच्य किमिति यदालम्ब्य वर्तते ज्ञानम् । सर्वविशेषाभावेऽत्यन्ताभावस्य वै प्रतीतत्वात् ॥ ६४२ ॥
अर्थ-निश्चय नयका क्या वाच्य (विषय) है कि जिसको अवलम्बन करके ज्ञान रहता है ? सम्पूर्ण विशेषके अभावमें निश्चयनयसे अत्यन्ताभाव ही प्रतीत होता है। भावार्थ-निश्चयनय जब किसी विशेषका अबलम्बन नहीं करता है तो फिर उसका कुछ भी विषय नहीं है, वह केवल अभावात्मक ही है ।
उत्तर
इदमत्र समाधान व्यवहारस्य च नयस्य यद्वाच्यम्।
सर्वविकल्पाभावे तदेव निश्चयनयस्य यद्वाच्यम् ॥ ६४३ ॥
अर्थ-ऊपरकी शंकाका यहांपर यह समाधान किया जाता है कि जो कुछ व्यवहार नयका वाच्य है उसमेंसे सम्पूर्ण विकल्पोंको दूर करनेपर जो वाच्य रहता है वही निश्चय नयका वाच्य है।
दृष्टान्तअस्त्यत्र च संदृष्टिस्तृणाग्निरिति वा यदोखा एवाग्निः ।
सर्वविकल्पाभावे तत्संस्पर्शादिनाप्यशीतत्वम् ॥ ६४४ ॥
अर्थ-निश्चय नयके वाच्यके विषयमें यहांपर अग्निका दृष्टान्त दिया जाता हैअग्नि यदि तृणकी अग्नि है तव भी अग्नि ही है, यदि वह कण्डेकी अग्नि है तो भी वह उष्ण अग्नि ही है, यदि वह कोयलेकी अग्नि है तो भी वह उप्ण अग्नि ही है । इसलिये उस अग्निमेंसे तृण, कण्डा (उपला) कोयला आदि विकल्प दूर कर दिये जायँ तो भी वह स्पर्शादिसे उष्ण ही प्रतीत होगी। भावार्थ-तृणकी अग्नि कहना ही वास्तवमें मिथ्या है, जिस समय तृण अग्नि परिणत है उस समय वह तृण नहीं किन्तु अग्नि है । जिस समय अग्नि परिणत नहीं है उस समय वह तृण है अग्नि नहीं है । इसलिये तृणादि विकल्पोंको दूर कर देना ही ठीक है । परन्तु अग्निरूप सिद्ध करनेके लिये पहले तृणादिका व्यवहार होना भी आवश्यक है। ठीक यही दृष्टान्त निश्चयनयमें घटित होता है । जो व्यवहारनयका विषय है वह विकल्पात्मक है, उसमेंसे विकल्पोंको दूर कर जो वाच्य पड़ता है वही निश्चयनयका विषय है। निश्चयनय गुणद्रव्य पर्यायरूप भेदोंको मिथ्या समझता है । गुणात्मक-अखण्डपिण्ड ही निश्चयनयका विषय है। वह अनिर्वचनीय है । इसीलिये व्यवहार नयके विषयको निषेधद्वारा कह दिया जाता है । निषेध कहनेसे उसका अभावात्मक वाच्य नहीं समझना चाहिये किन्तु शुद्ध व्य समझना चाहिये।
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