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पञ्चाध्यायी ।
[ प्रथम
चन है वह सब अंशरूप है इसलिये वह मिथ्या है । अतएव निश्चय नय कुछ न कहकर केवल निषेध करता है । शङ्का हो सक्ती है कि जब निश्चय नय केवल निषेध ही करता है तो फिर इसने कहा क्या ? इसका विषय क्या समझा जाय ? उत्तर - न - निषेध ही इसका वि षय है। इस निषेधसे यही ध्वनि निकलती है कि पदार्थ अवक्तव्य स्वरूप है । परन्तु उसकी अवक्तव्यताका प्रतिपादन करना भी वक्तव्य ही है । इसलिये प्रतिपादन मात्रका निषेध करना ही उसकी अवक्तव्यताका सूचक है । अतएव निश्चय नय नयाधिपति है ।
शङ्काकार---
ननु चोक्तं लक्षणमिह नयोस्ति सर्वोपि कि विकल्पात्मा । तदिह विकल्पाभावात् कथमस्य नयत्वमिदमिति चेत् ||६०० ॥ अर्थ —– यह बात पहले कही जा चुकी है कि सभी नय विकल्पात्मक ही होते हैं । नयका लक्षण ही विकल्प है । फिर इस द्रव्यार्थिक नय - निश्चय नय में विकल्प तो कुछ पड़ता ही नहीं है । क्योंकि उक्त नय केवल निषेधात्मक है । इसलिये विकल्पका अभाव होने से इस नयको नयपना ही कैसे आवेगा ? अर्थात् इस नयमें नयका लक्षण ही नहीं जाता है । द्रव्यार्थिक नय भी किया है-
तन्न यतोस्ति नयत्वं नेति यथा लक्षितस्य पक्षस्वात् । पक्षग्राही च नयः पक्षस्य विकल्पमात्रत्वात् ॥ ६०१ ॥ अर्थ - उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है । क्योंकि द्रव्यार्थिक नयमें भी न (निषेधात्मक ) यह पक्ष आता ही है। यह बात पहले ही कही जा चुकी है कि द्रव्यार्थिक नयका वाच्य 'न' है अर्थात् निषेध है । यह निषेध ही उसका एक पक्ष है और पक्षका ग्राहक ही नय होता है, तथा पक्ष ही विकल्पात्मक होता है । याद-नयका लक्षण विकल्प बतलाया गया है । द्रव्यार्थिक नयमें निषेधरूप विकल्प पड़ता ही है, अथवा किसी एक पक्षके ग्रहण करनेवाले ज्ञानको अथवा उसके वाचक वाक्यको भी नय कहते हैं । द्रव्यार्थिक - निश्चय नयमें निषेध - रूप पक्षका ही ग्रहण होता है । जिस प्रकार व्यवहार नय किसी धर्मका प्रतिपादन करने से विकल्पात्मक है उसी प्रकार व्यवहार नयके विषयभूत पदार्थका निषेध करने रूपका प्रतिपादन करनेसे निश्चय नय भी विकल्पात्मक ही है । इसलिये नयका लक्षण निश्चय नयमें सुघटित ही है।
तथा-
प्रतिषेध्यो विधिरूपो भवति विकल्पः स्वयं विकल्पत्वात् । प्रतिषेधको विकल्पो भवति तथा सः स्वयं निषेधात्मा ॥ ६०२ ॥ अर्थ -- जिस प्रकार प्रतिषेध्य विधिरूप है और स्वयं विकल्परूप होने से विकल्पात्मक
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