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________________ अध्याय । ] [ ___________ १५९ सुबोधिनी टीका । असद्भूत व्यवहार नयका लक्षण -- संयोजन्त अपि चाऽसतादिव्यवहारान्तो नयश्च भवति यथा । अन्यद्रव्यस्य गुणाः सञ्जायन्ते बलात्तदन्यत्र * ॥ ५२९ ॥ अर्थ-दूसरे द्रव्य गुणोंका बल पूर्वक दूसरे द्रव्यमें आरोपण किया जाय, अद्भूत व्यवहार नय कहते हैं । इसीको दृष्टान्त--- स पथा वर्णादिमतो मूर्तद्रव्यस्य कर्म किल मूर्तम तत्संयोगत्वादिह मूर्ताः क्रोधादयोपि जीवभवाः ॥५३० ॥ अर्थ – वर्णादिवाले मूर्त द्रव्यसे कर्म बनते हैं इसलिये वे भी मूर्त ही हैं । उन कर्मोंके सम्बन्धसे क्रोधादिक भाव बनते हैं इसलिये वेभी मूर्त हैं, उन्हें जीवके कहना यही असद्भूत व्यवहार नयका विषय है। भावार्थ-रूप रस गन्ध स्पर्शका नाम ही मूर्ति है । यह मूर्ति पुद्गलमें ही पाई जाती है इसलिये पुद्गल ही वास्तवमें मूर्त है । उसी पुद्गलका भेद एक कार्माण वर्गणा भी है । उस वर्गणासे मोहनीय आदि कर्म बनते हैं । उन कर्मोंके सम्बन्धसे ही आत्माके क्रोधादिक वैभाविक भाव बनते हैं । इसलिये वे भी मूर्त हैं । उन क्रोधादिकोंको आत्माके भाव बतलानेवाला ही असद्भूत व्यवहार नय है । * असद्भूतव्यवहार नयकी प्रवृत्ति हेतु कारणमन्तलना द्रव्यस्य विभावभावशक्तिः स्थात् । सा भवति सहजसिद्धा केवलमिह जीवपुद्गलयोः ॥ ५३१ ॥ अर्थ-असद्भूत व्यवहारनयकी प्रवृत्ति क्यों होती है ? इसका कारण द्रव्यमें रहनेवाली वैभाविक शक्ति है । वह स्वाभाविकी शक्ति है तथा केवल जीव और पुद्गलमें ही वह पाई जाती है । भावार्थ — जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंमें एक वैभाविक नामा गुण है यह उक्त दोनों द्रव्योंका स्वाभाविक गुण है उस गुणका पर - कर्मके निमित्तसे वैभाविक परिणमन 1 * संशोधित पुस्तक में ' सञ्जायते ' के स्थान में ' संयोज्यन्ते ' पाठ है वह विशेष अच्छा प्रतीत होता है । * आत्मा चारित्र गुणकी वैभाविक परिणतिका नाम ही क्रोधादि है । वे क्रोधादिभाव पुद्रके नहीं किन्तु आत्मा के ही हैं । परन्तु तुगलके निमित्त से होनेवाले हैं इसलिये वे शुद्धास्म के नहीं कहे जा सक्ते । स्वामी नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती-सूरिने द्रव्यसंग्रहमें जीवका कर्तृत्व बतलाते हुए क्रोधादिकोंको चेतन कर्म बतलाया है । और उन्हें अशुद्ध निश्ववनयका विषय बतलाया है। शुद्ध द्रव्यका निरूपण करनेवाले पञ्चाध्यायीकारने उन्हीं क्रोधादिकोंको जीवके निजगुण नहीं माना है इसीलिये उन्हें जीवके पक्ष में असद्भूत व्यवहार नयका विषय बतलाया है $ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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