________________
अध्याय।
सुबोधनी टीका।
[१५७
किया जाता है, कभी दर्शनगुण, कभी चारित्र, कभी सुख, कभी वीर्य, कभी सम्यक्त्व, कभी अस्तित्व, कभी वस्तुत्व, कभी द्रव्यत्व इत्यादि सव गुणोंको क्रमशः विवक्षित करनेसे यह बात ध्यानमें आजाती है कि जीव द्रव्य अनन्त गुणोंका पुञ्ज है । साथ ही इस बातका भी परिज्ञान (व्यवहार नयसे) होजाता है कि ज्ञान, दर्शन, सुख, चारित्र, सम्यक्त्व, ये जीवके विशेष गुण हैं, क्योंकि ये गुण जीवके सिवा अन्य किसी द्रव्यमें नहीं पाये जाते हैं, और अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व आदि सामान्य गुण हैं, क्योंकि ये गुण जीव द्रव्यके सिवा अन्य सभी द्रव्योंमें भी पाये जाते हैं, तथा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श ये पुद्गलके सिवा अन्य किसी द्रव्यमें नहीं पाये जाते हैं, इसलिये वे पुद्गलके विशेष गुण हैं । इसप्रकार वस्तुमें अनन्त गुणोंके परिज्ञानके साथ ही उसके सामान्य विशेष गुणोंका परिज्ञान भी व्यवहार नयसे होता है। गुण गुणी और सामान्य विशेष गुणोंका परिज्ञान होनेपर ही पदार्थमें आस्तिक्य भाव होता है । इसलिये विना व्यवहार नयके माने काम नहीं चल सकता । क्योंकि पदार्थका स्वरूप विना समझाये आ नहीं सकता और जो कुछ समझाया जायगा वह अंशरूपसे कहा जायगा
और इसीको पदार्थमें भेद बुद्धि कहते हैं । अभिन्न अखण्ड पदार्थमें भेद बुद्धिको उपचरित कहा गया है । परन्तु व्यवहार नय निश्चय नयकी अपेक्षा रखनेसे यथार्थ है । निरपेक्ष मिथ्या है।
व्यवहार नयके भेद-- व्यवहारनयो देधा सद्भूतस्त्वथ भवेदसद्भूतः ।
सद्भूतस्तद्गण इति व्यवहारस्तत्प्रवृत्तिमात्रत्वात् ॥ ५२५ ॥
अर्थ-व्यवहार नयके दो भेद हैं । (१) सद्भतव्यवहार नय (२) असद्भूत व्यवहार नय । सद्भूत उस वस्तुके गुणोंका नाम है, और व्यवहार उनकी प्रवृत्तिका नाम है। भावार्थ-किसी द्रव्यके गुण उसी द्रव्यमें विवक्षित करनेका नाम ही सद्भत व्यवहार नय है। यह नय उसी वस्तुके गुणोंका विवेचन करता है इसलिये यथार्थ है । इस नयमें अयथार्थपना केवल इतना है कि यह अखण्ड वस्तुमेंसे गुण गुणीका भेद करता है।
सद्भूत ब्यवहारनयकी प्रवृत्तिका हेतु-- . अत्र निदानं च यथा सदसाधारणगुणो विवक्ष्यः स्यात् । अविवक्षि रोऽथ वापि च सत्ताधारणगुणो न चान्यतरात्॥२६॥
अर्थ-सद्भूत व्यवहार नयकी प्रवृत्तिका हेतु यह है कि पदार्थके असाधारण गुण ही इस नय द्वारा विवक्षित किये जाते हैं अथवा पदार्थके साधारण गुण इस नय द्वारा विवक्षित नहीं किये जाते हैं । ऐसा नहीं है कि इस नय द्वारा कभी कोई और कभी कोई गुण विवक्षित और अविवक्षित किया जाय । भावार्थ-सद्भूत व्यवहार नय वस्तुके सा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org