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________________ - ANNAR १५६ ] पञ्चाध्यायी। [प्रथम अर्थ- पर्यायार्थिक नय कहो अथवा व्यवहार नय कहो दोनोंका एक ही अर्थ है, सभी उपचार मात्र है । भावार्थ-व्यवहार नय पार्थके यथार्थ रूपको नहीं कहता है, वह व्यवहारार्थ पदार्थमें भेद करता है, वास्तव दृष्टिसे पदार्थ वैसा नहीं है, इसलिये व्यवहार नय उपचरित कथन करता है । पर्यायार्थिक नय भी व्यवहारनयका ही दूसरे नाम है, क्योंकि पर्यायार्थिक नय वस्तुके किसी विवक्षित अंशको ही विषय करता है । इसलिये वह भी वस्तुमें भेद सिद्ध करता है । अतः दोनों नयोंका एक ही अर्थ है यह बात सुसिद्ध है। व्यवहारनयका स्वरूप। व्यवहरणं व्यवहारः स्यादिति शब्दार्थनो न परमार्थः । स यथा गुणगुणिनोरिह सदभेदे भेदकरणं स्थात् ॥९२२ ॥ __ अर्थ-किसी वस्तुमें भेद करनेका नाम ही व्यवहार है, व्यवहारनय शब्दार्थ-वाक्य विवक्षाके आधार पर है अथवा शब्द और अर्थ दोनोंहीसे अपरमार्थ है। वास्तवमें यह नय वस्तुके यथार्थ रूपको नहीं कहता है इसलिये यह परमार्थभूत नहीं है । जैसे-यद्यपि सत् अभिन्न-अखण्ड है तथापि उसमें 'यह गुण है ' यह गुणी है, इसप्रकार गुण गुणीका भेद करना ही इस नयका विषय है। साधारणगुण इति वा यदि वाऽसाधारणः सतस्तस्य । भवति विवक्ष्यो हि यदा व्यवहारनयस्तदा श्रेयान ॥५२३॥ अर्थ----पदार्थका सामान्य गुण हो अथवा विशेष गुण हो, जो जिस समय विवक्षित होता है उसी समय उसे व्यवहारनयका यथार्थ विषय समझना चाहिये । अर्थात् विवक्षित गुण ही गुण गुणीमें भेद सिद्ध करता है, वह व्यवहारनयका विषय है। यहां पर यह शंका की जा सक्ती है कि जब व्यवहारनय वस्तुमें भेद सिद्ध करता है तथा उसके यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादक नहीं है तो फिर उसका विवेचन ही क्यों किया जाता है, अर्थात् उससे जब किसी उपयोगी फलकी सिद्धि ही नहीं होती तो उसका मानना ही निष्फल है ? इस शंकाके उत्तरमें व्यवहारनयका फल नीचेके श्लोकसे कहा जाता है फलमास्तिक्यमतिः स्यादनन्तधर्मैकधर्मिणस्तस्य । गुणसावे नियमाद्व्यास्तित्वस्य सुप्रनीतत्वात् ॥५२४॥ अर्थ-व्यवहारनयका फल पदार्थोमें आस्तिक्यबुद्धिका होना है, व्यवहारनयसे वस्तु अनन्त गुणोंका पुञ्ज है, यह बात जानी जाती है । क्योंकि गुणोंकी विवक्षामें गुणोंका सद्भाव सिद्ध होता है और गुणोंके सद्भावमें गुणी-द्रव्यका सद्भाव स्वयं सिद्ध अनुभवमें आता है । भावार्थ-व्यवहार नयके विना पदार्थ विज्ञान होता ही नहीं दृष्टान्तके लिये भीव द्रव्यको ही ले लीजिये, घ्यवहार नयसे जीवका कभी ज्ञान गुण विवक्षित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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