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________________ १४९ पचायी। करें तो वे यह बात समझ लेंगे कि प्रवाहरूपसे होनेवालीं क्रमसे भिन्न भिन्न अथवा समस्त पर्यायें पदार्थरूप ही हैं अथवा पदार्थ ही प्रवाहसे होनेवाली उन पर्यायस्वरूप है किसी रूपसे भी पदार्थके ऊपर विचार किया जाय तो यही बात सिद्ध होती है कि पदार्थ जैसा एक समय में होनेवाली अवस्थारूप है वैसा सम्पूर्ण समयोंमें होनेवालीं अवस्थाओंखरूप भी वही है, अथवा वह जितना एक समय में होनेवाली अवस्थारूप है, उतना ही वह सम्पूर्ण समयों में होनेवाली अवस्थाओंरूप है । * न पुनः कालसमृद्धौ यथा शरीरादिवृद्धिरिति वृडौ । अपि तद्धानौ हानिर्न तथा वृद्धिर्न हानिरेव सतः ॥ ४७४ ॥ अर्थ - ऐसा नहीं है कि जिसप्रकार कालकी वृद्धि होनेपर शरीरादिकी वृद्धि होती है और कालकी हानि होनेपर शरीरादिकी हानि होती है, उस प्रकार सत्की भी हानि वृद्धि होती हो । शरीरादिकी हानि वृद्धिके समान न तो पदार्थकी वृद्धि ही होती है और न हानि ही होती है । भावार्थ जिस प्रकार थोड़े कालका बालक लघु शरीरवाला होता है परन्तु अधिक कालका होनेपर वही बालक हृष्ट पुष्ट-लम्बे चौड़े शरीरवाला युवा - पुरुष होता है । वृक्ष वनस्पतियों में भी यही बात देखी जाती है, कालानुसार वे भी अंकूरावस्थासे बढ़कर लम्बे वृक्ष और लताओंरूप हो जाती हैं, उसप्रकार एक पदार्थकी हानि वृद्धि नहीं होती है । उसके विषयमें शरीरादिका दृष्टान्त विषम है। शरीरादि पुद्गल द्रव्यकी स्थूल पर्याय है और वह अनेक द्रव्योंका समूह है। अनेक परमाणुओंके मेलसे बना हुआ स्कन्ध ही जीव शरीर है। उन परमाणुओंकी न्यूनतामें वह न्यून और उनकी अधिकतामें वह अधिक होजाता है, परन्तु एक द्रव्यमें ऐसी न्यूनता, अधिकता नहीं होसक्ती है। वह जितना है उतना ही रहता है। पुद्गल द्रव्यमें एक परमाणु भी जितना है वह सदा उतना ही बना रहेगा, उसमें न्यूनाधिता कभी कुछ नहीं होगी । उसमें परिणमन किसी प्रकारका भी होता रहो। * शंकाकार- * ननु भवति पूर्वपूर्व भावध्वंसान्नु हानिरेव सतः । स्यादपि तदुत्तरोत्तरभावोत्पादन वृद्धिरेव सतः ॥ ४७५ ॥ 'न पुनः, के स्थान में 'व पुनः, पाठ संशोधित पुस्तक में है । वही ठीक प्रतीत होता है । अन्यथा तीन नकारोंमें एक व्यर्थ ही प्रतीत होता है । * जैसे क्षेत्रकी अपेक्षा से वस्तु विष्कंभक्रमसे विचार होता है वैसे कालकी अपक्षासे उसमें विचार नहीं होता है । क्षेत्रकी अपक्षासे तो उसके प्रदेशोंका विचार होता है । वस्तुका एक प्रदेश उसके सर्व देशमें नहीं रहता है परन्तु कालको अपेक्षा एक गुणांध उसे बस्तुके स देशमें रहता है प्रत्येक समय में एक गुणकी जो अवस्था होती है उस ही गुणांश कहते है। पुस्तकमें हानि स्थान में वृद्धि और वृद्धि के स्थान में हानि पाठ है जह ठीक नहीं है। * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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