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________________ पञ्चाध्यायी। - - कि अनेक सत्तावाले-मिले हुए पदार्थोंमें किसी सांकेतिक देशमें परिणमन होनेपर सभी देशोंमें सभी पदार्थोंमें परिणमन होता हैं । -शंकाकारने एक देशके परिणमन होनेमें एक सत्ता हेतु बतलाया था, परन्तु उसमें दोष आता है। क्योंकि अनेक सत्तावाले पदार्थों में होनेवाला सदृश परिणमन भी एक परिणमनके नामसे कहा जाता है । सूक्ष्मदृष्टि से विचार किया जाय तो प्रत्येक पार्थका परिणमन जुदा २ होता है, परन्तु स्थूलतासे समान परिणमनको एक ही परिणमन कह दिया जाता है । एक कहनेका कारण भी अनेक पदार्थोका घनिष्ट सम्बन्ध है । जैसे वांसमें जो परिणमन होता है उसमें प्रत्येक परमाणुका परिणमन जुदा २ है । परन्तु समुदायकी अपेक्षासे सम्पूर्ण वांसके परिणमनको एक ही परिणमन कहा जाता है । शंकाकार वस्तुके एक देशके परिणमनसे उसके सर्व देशमें परिणमन मानता है परन्तु ऐसा पक्ष युक्ति संगत नहीं है, इसीलिये आचार्यने दिखा दिया है। .. व्यतिरेके वाक्थनिई पद परिणामति लोकशे हि। कचिदपि न परिणमन्ति दिशातित्यात् ।४६८। अर्थ-व्यतिरेक पक्षमें यह वाक्य है --किली वातुके एक देशका परिणमन न होनेपर उसके सर्व देशोंमें भी परिणमन नहीं होता है। क्योंकि उन सा एक ही सत्ता है। भावार्थ-शंकाकारने ऊपर अन्वय वाक्य कहा था इसमें ग्रन्थकारने अनेकान्तिक दोष दिखला दिया था, अब इस श्लोक द्वारा उसने व्यतिरेक वाक्य कहा है। उन्नर-- तन्न यतः सति सति वै व्यतिरेकाभाव एव भवति यथा । तद्देशसमय भावरखण्डिारवालतः स्वतः सिद्धात् ।। ४६९ ॥ अर्थ-आचार्य कहते हैं कि शंकाकारने जो व्यतिरेक बाक्य कहा है वह बनता ही नहीं है, क्योंकि पदार्थ सदात्मक है अर्थात् उसका सत् लक्षण है और जिसमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य होता रहे उसे सत् कहते हैं । जब पदार्थ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक-सतरूप है तब उसमें व्यतिरेक सर्वथा ही नहीं बनता। क्योंकि उस देशमें प्रतिक्षण अखण्ड रीतिसे परिणमन होता रहता है, और वह पदार्थका स्वतः सिद्ध परिणमन है । भावार्थ- ऐसा कोई समय नहीं जिस समय पदार्थमें परिणमन न होता हो, यदि ऐसा समय कभी माना जाय तो उस समय उस पदार्थका ही अभाव सिद्ध होगा। क्योंकि उस समय उसमें सत्ता लक्षण ही नहीं घटित होगा । इसलिये शंकाक रका यह कहना कि “जहांपर एक देशमें परिणयन नहीं होखा है वहांपर सर्व देश में भी नहीं होता" सर्वथा निर्मूल है। .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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