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________________ - - - उत्तर अध्याय । सुबोधिनी टीका। अर्थ-क्या सत् एक है, अथवा अनेक है अथवा उभय है वा अनुभय है अथवा बाकीके एक एक भंगरूप है । अथवा और ही प्रकार है ? सत्यं लोकमिति वा सदनेक चोभयं च नययोगात् । न च सर्वथा सरेक सनि वा सहप्रमाणत्वात् ॥ ४३५ ।। अर्थ-ठीक है, सत् नय दृष्टिसे एक भी है अनेक भी है उभय भी है और अनुभय भी है + परन्तु यह बात नयविवक्षासे ही बनती है, नय विवक्षाकी अपेक्षाको छोड़कर सर्वथा सत्को एक कहना भी ठीक नहीं है, अनेक कहना भी ठीक नहीं है * और उभय कहना भी ठीक नहीं, अनुभय कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सर्वथा एकान्तरूपसे एक अनेक सत् अप्रमाण ही हैं। सत् स्यात् एक हैअथ तद्यथा सदेकं स्यादविभिन्नप्रदेशवत्वादा। गुणपर्यायांशैरपि निरंशदेशादरखण्डसामान्यात् ॥४३६॥ अर्थ---गुण पर्याय रूप अंशोंको अभिन्न प्रदेशी होनेमे सत् एक है अथवा अखण्ड सामान्यकी अपेक्षासे निरंश-अंश रहित देश होनेसे सत् एक है। भावार्थ-द्रव्यमें गुण पर्याय इसी प्रकार हैं जिस प्रकार कि जलमें कल्लोलें होती हैं। जिसप्रकार जलसे कल्लोलोंकी सत्ता भिन्न नहीं है उसी प्रकार द्रव्यसे गुण पर्यायोंकी सत्ता भी भिन्न नहीं है। केवल विवक्षासे द्रव्य गुणपर्यायोंकी कल्पना की जाती है, शुद्ध दृष्टि से जो द्रव्य है सोई गुण पर्याय है, जो गुण है सोई द्रव्य पर्याय है, अथवा नो पर्याय है सोई द्रव्य गुण है, इसलिये जब तीनों एक ही हैं तो न उनकी भिन्न सत्ता है, और न उनके भिन्न प्रदेश ही हैं। तथा शुद्ध दृष्टिसे न उनमें अंश कल्पना ही है किन्तु निरंश-अखण्ड देशात्मक एक ही सत् है। तथ:द्रव्येण क्षेत्रेण च कालेनापीह चाथ भावेन । सदखण्डं नियमादिति यथाधुना वक्ष्यते हि तल्लक्ष्म ॥ ४३७॥ अर्थ-~-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे नियमसे सत् अखण्ड है, अब इन चारोंकी अपेक्षासे ही सत्में अखण्डता क्रमसे सिद्ध की जाती है। द्रव्य-विचारगुणपर्ययवद्रव्यं तद्गुणपर्ययवपुः सदेकं स्यात् । नहि किश्चिद्गुणरूप पर्ययरूपं च किश्चिदंशांशैः ॥४३८॥ x च शब्दसे अनुमयादिका ग्रहण किया जाता है। * यहांपर 'या' शन्दसे उभयादिका ग्रहण कर लेना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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