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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
उत्तर-
सत्यं सर्वमनीषितमेतत्तदभाववादिना तावत् । यत्सत्तत्क्षणिकादिति यावन्नोदेति जलददृष्टान्तः ॥ ४२८ ॥ अर्थ- ग्रन्थकार कहते हैं कि शंकाकारके पदार्थको सर्वथा नित्य मानना आदि विचार तभी तक ठहर सक्ते हैं जब तक कि उसके सामने मेघका दृष्टान्त नहीं आया है । जिस समय उसके सामने यह अनुमान रक्खा जाता है कि जो सत् है वह क्षणिक भी है जैसे जलके देनेवाले मेघ । उसी समय उसके नित्यताके विचार भाग जाते हैं, अर्थात् जो मेघ अभी आते हुए दीखते हैं वे ही मेघ तुरन्त ही नष्ट - विलीन होते हुए भी दीखते हैं, ऐसी अवस्थामें कौन साहस कर सक्ता है कि वह पदार्थको सर्वथा नित्य कहे ?
सत्को सर्वथा अनित्य मानने से दोष
अयमप्यात्मरिपुः स्यात्सदनित्यं सर्वथेति किल पक्षः ।
प्रागेव सतो नाशादपि प्रमाणं क तत्फलं यस्मात् ॥ ४२९ ॥ अर्थ - सत् - पदार्थ सर्वथा अनित्य है ऐसा पक्ष भी उनका (सत्को अनित्य माननेवालोंका ) स्वयं शत्रु है । क्योंकि जब सत् अनित्य है तो पहले ही उसका नाश हो जायगा, फिर प्रमाण और उसका फल किस प्रकार बन सक्ता है ? अर्थात् नहीं बन सक्ता । और भी दोष
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अपि यत्सन्तदिति वचो भवति च निग्रहकृते स्वतस्तस्य । यस्मात्सदिति कुतः स्यात्सिद्धं तच्छून्यवादिनामिह हि ॥ ४३० ॥
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अर्थ- - जो दार्शनिक ( बौद्धादि ) पदार्थको सर्वथा अनित्य मानते हैं उनके यहां उनका वचन ही स्वयं उनका खण्डन करता है, क्योंकि जो पदार्थको सर्वथा विनाशीक माननेवाले - शून्यवादी हैं 'वे जो सत् है सो अनित्य है' ऐसा वाक्य ही नहीं कह सक्ते हैं । उसके न कहनेका कारण भी यही है, कि, जब वे वाक्य बोलते हैं उस समय सत् तो नष्ट ही हो जाता है अथवा सर्वथा अनित्य पक्षवालोंके यहां पूरा वाक्य ही नहीं बोला जासक्ता, क्योंकि जब तक वे ' जो सत् है' इस वाक्यका नष्ट हो जायगा । जब 'है' पद बोलेंगे जायगा । जब उत्तरार्ध ' सो अनित्य है '
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" सत् पद बोलेंगे तब तक ' जो ' तबतक पद भी नष्ट हो बोलेंगे तबतक पूर्वार्ध और उत्तरार्धके
सत्
"
*सर्वे क्षणिकं सत्वात्, जो सत् है वह सब क्षणिक ही है। इस व्यतिरेक अनुमानसे बौद्ध भी पदार्थों में क्षणिकता सिद्ध करते हैं, परन्तु एकान्तरूपसे करते हैं, यह बात प्रत्यक्ष बाधित है। क्योंकि पदार्थों में 'यह वही है, ऐसी भी प्रतीति होती है ।
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