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पञ्चाध्यायी ।
दृष्टान्त---
अथ तद्यथा पटस्य क्रिया प्रसिद्धेति तन्तुसंयोगः ।
भवति पदाभावः किल तदभावे यथा तदनन्यात् ॥ ४२५ ॥ अर्थ — यह जगत् प्रसिद्ध है कि अनेक तन्तुओंका संयोग ही पटकी क्रिया है । यदि वह तन्तु संयोगरूप पटक्रिया न मानी जाय तो पट ही कुछ नहीं ठहरता है । क्योंकि तन्तु संयोगसे अतिरिक्त पट कोई पदार्थ नहीं है । भावार्थ - तन्तु संयोगरूप क्रियाके मानने पर ही पटकी सत्ता और उससे शीत निवारण आदि कार्य सिद्ध होते हैं, यदि तन्तु संयोगरूप क्रिया न मानी जाय तो भिन्न २ तन्तुओंसे न तो पटात्मक कार्य ही सिद्ध होता है . और न उन स्वतन्त्र तन्तुओंसे शीत निवारणादि कार्य ही सिद्ध होते हैं । इसलिये तन्तु संयोगरूपा क्रिया पटकी अवश्य माननी पड़ती है
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विक्रिया के अभाव में और भी दोष
अपि साधनं क्रिया स्यादपवर्गस्तत्फलं प्रमाणत्वात् ।
[ प्रथम
तत्कर्त्ता ना कारकमेतत् सर्वं न विक्रियाभावात् ॥ ४२६ ॥ अर्थ – यदि विक्रिया मानी जाती है तब तो मोक्ष प्राप्तिका जो साधन - उपाय किया जाता है वह तो क्रिया पड़ती है, और उसका फल मोक्ष भी प्रमाण सिद्ध है तथा उसका करनेवाला-कर्त्ता पुरुषार्थी पुरुष होता है । यदि पदार्थमें विक्रिया ही न मानी जाय तो इनमेंसे एक मी कारक सिद्ध नहीं होता है । भावार्थ- पदार्थोंमें विक्रिया मानने पर ही इस जीवके मोक्ष प्राप्ति और उसके साधनभूत तप आदि उत्तम कार्य सिद्ध होते हैं । अन्यथा कुछ भी नहीं बनता ।
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शङ्काकार-
ननु का नो हानिः स्याद्भवतु तथा कारकाद्यभावश्च । अर्थात् सन्नित्यं किल नह्यौषधमातुरे तमनुवर्त्ति ॥ ४२७ ॥ अर्थ - शङ्काकार कहता है कि ग्रन्थकारने विक्रियाके अभाव में जो कारकादिका न बनना आदि दोष बतलाये हैं वे हों, अर्थात् कारकादि भले ही सिद्ध न हों, ऐसा मानने से भी हमारी कोई हानि नहीं है । हम तो पदार्थको सर्वथा नित्य ही मानेंगे । नित्य मानने पर उसमें मोक्ष प्राप्ति आदि कुछ भी न सिद्ध हो, इसकी हमें परवाह नहीं है, क्योंकि औषधि रोगीका रोग दूर करनेके लिये दी जाती है । यह आवश्यक नहीं है कि वह रोगीको अच्छी लगे या बुरी लगे ? भावार्थ - औषधि देने पर विचार नहीं किया जाता है कि रोगी इसे अनुकूल समझेगा या नहीं, उसके समझने न समझने पर औषधिका देना अवलम्बित नहीं है । उसी प्रकार यहां पर वस्तु विचार आवश्यक है । उसमें चाहे कोई भी दोष आओ अथवा - किसीका अभाव हो जाओ इससे शंकाकारकी कुछ हानि नहीं है ।
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