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पञ्चाध्यायी।
[प्रथम
ओर रखकर खड़े होनेसे सामने उत्तर और पीठ पीछे दक्षिणका व्यवहार होता है, तथा ऊपर ऊर्ध्व और नीचे अधोदिशाका व्यवहार होता है । यह व्यवहार केवल आकाशमें किया जाता है । क्योंकि सूर्योदयकी ओरके आकाशको ही पूर्व दिशा कहा जाता है, उस ओरके आकाशको छोड़कर पूर्व दिशा और कोई पदार्थ नहीं है । इसलिये दिशा कोई पदार्थ नहीं है * केवल काल्पनिक व्यवहार है* उसी प्रकार सत् और परिणाम भी क्या काल्पनिक हैं ।
__ क्या कारक द्वैतके समान हैंकिमयाधाराधेयन्यायादिह कारकादि दैतमिव ।
स यथा घटे जलं स्यान्न स्यादिह जले घटः कश्चित् ॥ ३५० ॥ __ अर्थ-अथवा यह कहा जाय कि घड़ेमें जल है, तो यह कथन दो कारकोंको प्रकट करता है। घडेमें, यह वाक्य अधिकरण कारक रूप है, और जल है, यह वाक्य कर्ता कारकरूप है। क्योंकि घड़ा जलका आधार है, और जल स्वतन्त्र है इसलिये कर्ता कारक है । दूसरे वाक्योंमें ऐसा भी कहा जा सकता है कि सप्तमी विभक्त्यन्त पद अधिकरण कारक होता है, और प्रथमा विभक्त्यन्त पद कर्ता कारक होता है। अधिकरण आधाररूप होता है
और उसमें रहनेवाला आधेय होता है ऐसा विपरीत नहीं होता है कि आधेय तो आधार होजाय और आधार आधेय होजाय, क्योंकि घटमें जल रहता है परन्तु जलमें घट नहीं रहता जिस प्रकार घट और जलमें आधार आधेय भावरूप दो कारक हैं, क्या उसी प्रकार सत्
और परिणाम भी हैं ? अर्थात् उनमें भी जलके समान एक आधेय रूप और दूसरा धड़ेके समान आधार रूप है ?
___ क्या बीजाङ्करके समान हैं-- अथ किं धीजाङ्करवत्कारणकार्यद्वयं यथास्ति तथा।
स यथा योनीभूतं तत्रैकं योनिजं तदन्यतरम् ॥ ३५१ ॥
अर्थ-अथवा जिस प्रकार बीज और अङ्कुरमें कार्यकारण भाव है। बीज अकुरकी उत्पत्तिका स्थान-योनि है, और अङ्कुर उससे उत्पन्न-योनिज है । उसी प्रकार सत् और परिणाममें भी क्या कार्य कारण भाव है ?
क्या कनकोपलके समान हैंअथ किं कनकोपलवत् किश्चित्स्वं किश्चिदस्वमेव यतः ।
ग्राह्यं स्वं सारतया तदितरमस्वं तु हेयमसारतया ॥ ३५२॥ * दिशोप्याकाशेन्तर्भावः आदित्योदयाद्यपेक्षया आकाशप्रदेशपीक्तषु इतः इदमिति व्यव. हारोपसेः । सर्वार्थ सिद्धि
*नैयायिक, दार्शनिक द्रव्योंके नौ भेद करते हैं और उन्हीं नौ भेदोंमें दिशा भी एक द्रव्य मानते हैं। ऐसा उनका मानना जारके कथन से लापत होजाता है।
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