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________________ असुरकुमार नागकुमार आदि दश प्रकारके भवनवासी देवोंका वर्णन व्यन्तरनिकायके आठ भेद किन्नर, किम्पुरुषादि ८ प्रकारके व्यन्तरोंका वर्णन किन्नर के १०, किम्पुरुषके १०, महोरगके १०, गान्धर्व १२, यक्षके १३, राक्षसके ७, भूतके ९, पिशाचके १५ भेद, इन भेदोंके क्रमशः नाम व्यन्तरोंके आठ भेदोंकी क्रमसे विक्रिया और उनके वजचिन्ह सभाष्यतत्त्वार्थाविगमसूत्रम् - - १९८ २०० २०१ २०२ तीसरे देवनिकाय - ज्योतिष्कों का वर्णन ज्योतिष्कदेव सर्वत्र समान गति, और भ्रमण करनेवाले हैं, या उनमें किसी प्रकारका अन्तर है ? सूर्यमंडलाव ज्योतिष्कदेवोंकी गति से ही कालके विभाग घड़ी, पल, दिन, रात, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर- वर्ष आदि भेद होते हैं ज्योतिष्क विमानोंद्वारा कालका जो विभाग होता है, उसकी स्पष्टता समयका स्वरूप --- आवली, उद्दास, प्राण, स्तोक, लव, नाली, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, पूर्वाङ्ग, पूर्व, अयुत, कमल, नलिन, कुमुद, तुटि, अडड, अवव, हाहा, हूहू, आदि संख्यातकालके भेदोंका स्वरूप उपमा नियतकालका प्रमाण २०२ २०४ Jain Education International २०५ २०७ २०९ २१० २११ २१३ २१३ मनुष्यलोक में तो ज्योतिष - चक्र मेरुकी प्रदक्षिणा देता हुआ नित्य ही गमनशील है, परन्तु उसके बाहर कैसा है ? विना प्रदक्षिणा दिये ही गतिशील है ? यद्वा उसका कोई और ही प्रकार से है ? चौथे देवनिकाय - वैमानिकोंका वर्णन २१५ २१६ वैमानिकदेव जो कि अनेक विशेष ऋद्धियोंके धारक हैं, उनके मूलमें कितने हैं ? कल्पोपन और कल्पातीत भेदों से कल्पोपन्नदेवोंके कल्पों की अवस्थिति किस प्रकारसे है ? कल्पोपन्न और कल्पातीत दोनों भेदों से किसीका भी नामनिर्देश नहीं किया है, अतएव वे कौन कौन हैं ? सौधर्म, ऐशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत आरण, और अच्युत १२ कल्पों का वर्णन वैमानिकदेवोंकी उत्तरोत्तर अधिकतायें २१७ २१७ २१७ वैमानिकदेवोंमें जिस प्रकार ऊपर ऊपर सुखादि विषयों में अधिकता हैं, उसी प्रकार किन्हीं किन्हीं विषयोंकी अपेक्षासे न्यूनता भी है। | वैमानिकदेवोंमें कौन कौनसी लेश्या होती हैं ? कल्प किसे कहते हैं ? जो देव भगवान् अरहंतदेवके, गर्भ जन्मादिक | कल्याणकोंके समय प्रमुदित - प्रसन्न हुआ करते हैं, क्या वे सभी देव सम्यग्दृष्टी हैं ? २३० लौकान्तिकदेव कौन हैं? और वे कितने प्रकारके हैं ? २३२ सारस्वत आदि आठ प्रकारके लौकान्तिकदेवांकावर्णन २३३ अनुत्तरविमानके देवोंका विशेषत्व तिर्यञ्चका स्वरूप २३३ २३५ २३५ | देवोंकी स्थितिका क्या हिसाब है ? दक्षिणार्ध के अधिपति भवनवासियोंकी उत्कृष्ट स्थिति २३६ उत्तरार्धके अधिपति भवनवासियोंकी उत्कृष्ट स्थिति २३६ दोनों असुरेन्द्रों ( चमर और बलि) की उत्कृष्ट स्थिति | सौधर्म और ऐशानकी उत्कृष्ट स्थिति (आयु) ऐशान कल्पवासियों की उत्कृष्ट स्थिति सनत्कुमार कल्पके देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति माहेन्द्रकल्पसे लेकर अच्युत पर्यंत कल्पों के देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति कल्पातीतदेवोंकी उत्कृष्ट स्थिति वैमानिकदेवोंकी जघन्य स्थिति २३८ २३९ २४० सानत्कुमारकरूपमें रहनेवाले देवोंकी जघन्य स्थिति २४० माहेन्द्रकल्पवर्त्ती देवोंकी जघन्य स्थिति २४० २४१ २४२ जघन्य स्थितिका क्या हिसाब है ? नारकजीवोंकी जघन्य स्थिति नरककी पहली भूमिकी जघन्य स्थितिका प्रमाण २४२ भवनवासियोंकी जघन्य स्थिति २४३ २४३ २४३ २४३ २४३ २४४ २४४ व्यन्तरदेवों की जघन्य स्थिति व्यन्तरोंकी उत्कृष्ट स्थिति ज्योतिष्कोंकी उत्कृष्ट स्थिति ग्रहादिकोंकी उत्कृष्ट स्थिति २२३ २२८ २२९ नक्षत्र जातिके ज्योतिष्कदेवोंकी उत्कृष्ट स्थिति ताराओंकी उत्कृष्ट स्थिति जघन्य २१८ | ताराओंसे शेष ज्योतिष्कदेवोंकी जघन्य स्थिति इति चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ २२१ २३७ २३७ २३८ २३८ For Private & Personal Use Only २४४ २४४ www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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