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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथमोऽध्यायः भिभूतत्वादकिंचित्कराणि भवन्तीन्द्रियवत्। यथावाव्यभ्रे नभसि आदित्य उदिते भूरितेजस्वादादित्येनाभिभूतान्यतेजांसि ज्वलनमाणचन्द्रनक्षत्रप्रभृतीनि प्रकाशनं प्रत्यकिंचित्कराणि भवन्ति तद्वदिति। केचिदप्याहुः ।-अपायसद्रव्यतया मतिज्ञानं तत्पूर्वकं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानमनःपर्यायाने च रूपिद्रव्यविषये तस्मान्नैतानि केवलिनः सन्तीति ॥ किं चान्यत् ।-मतिज्ञानादिषु चतुएं पर्यायेणोपयोगो भवति न युगपत् । संभिन्नज्ञानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपत्सर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने चानुसमयमुपयोगो भवति । किं चान्यत् ।-क्षयोपशमजानि चत्वारि ज्ञानानि पूर्वाणि क्षयादेव केवलम् । तस्मान्न केवलिनः शेषाणि ज्ञानानि सन्तीति ॥ अर्थ-ऊपर मति आदिक जो ज्ञानके भेद गिनाये हैं, उनमें से एक जीवके एक समयमें प्रारम्भके एकसे लेकर चार तक ज्ञान हो सकते हैं। किसी जीवके तो मतिज्ञानादिकमेंसे एक ही ज्ञान हो सकता है, किसी जीवके दो हो सकते हैं, किसीके तीन हो सकते हैं, और किसीके चार हो सकते हैं। इनमें से श्रुतज्ञानका तो मतिज्ञानके साथ सहभाव नियत है । क्योंकि वह मतिज्ञानपूर्वक ही हुआ करता है । परन्तु जिस जीवके मतिज्ञान है, उसके श्रुतज्ञान हो भी और न भी हो । शंका-केवलज्ञानका अपनेसे पूर्वके मति आदिक ज्ञानोंके साथ सहभाव है, या नहीं ? उत्तर-इस विषयमें कुछ आचार्योंका तो ऐसा कहना है, कि केवलज्ञान हो जानेपर भी इन मतिज्ञानादिकका अभाव नहीं हो जाता । किंतु ये ज्ञान केवलज्ञानसे अभिभूत हो जाते हैं, अतएव वे उस अवस्थामें अपना कुछ भी कार्य करनेके लिये समर्थ नहीं रहते । जैसे कि केवलज्ञानके उत्पन्न हो जानेपर भी इन्द्रियाँ तदवस्थ रहती हैं, परन्तु वे अपना कुछ भी कार्य नहीं कर सकतीं, इसी प्रकार मतिज्ञानादिक के विषयमें समझना चाहिये । अथवा जैसे कि मेघपटलसे रहित आकाशमें सूर्यका उदय होते ही उसके सातिशय महान् तेजसे अन्य तेजो द्रव्य-अग्नि रत्न चन्द्रमा नक्षत्र प्रभृति प्रकाशमान पदार्थ आच्छादित हो जाते हैं, और अपना प्रकाशकार्य करनेमें अकिंचित्कर हो जाते हैं, वैसे ही केवलज्ञानके उदित होनेपर मतिज्ञानादिके विषयमें समझना चाहिये। - किसी किसी आचार्यका ऐसा भी कहना है, कि ये ज्ञान केवलीके नहीं हुआ करते । क्योंकि श्रोत्रादिक इन्द्रियोंसे उपलब्ध तथा ईहित पदार्थके निश्चयको अपाय कहते हैं, और मतिज्ञान अपायस्वरूप है तथा वह सद्रव्यतया हुआ करता है वह विद्यमान अथवा विद्यमानवत् पदार्थको ही ग्रहण किया करता है। किंतु केवलज्ञानमें ये दोनों ही बातें सर्वथा नहीं पायी जातीं । अतएव वह केवलज्ञानके साथ नहीं रहा करता। और इसीलिये श्रुतज्ञान भी उसके साथ नहीं रह सकता, क्योंकि वह मतिज्ञानपूर्वक ही हुआ करता है, और अवधिज्ञान तथा मनःपर्यायज्ञान केवल रूपी द्रव्यको ही विषय करनेवाले हैं अतएव वे भी उसके साथ नहीं रह सकते । इसके सिवाय एक बात और भी है, वह यह कि-मतिज्ञानादिक १--भवन्तीति पाठान्तरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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