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________________ सूत्र ३१ । ] संभाष्यतत्त्वाथोधिगमसूत्रम् । इस ज्ञानको केवल परिपूर्ण समग्र असाधारण निरपेक्ष विशुद्ध सर्वभावज्ञापक लोकालोकविषय और अनंतपर्याय ऐसे नामोंसे कहा करते हैं । भावार्थ - जीवपुद्गलादिक सम्पूर्ण मूलद्रव्य और उनकी त्रिकालवर्ती सम्पूर्ण सक्ष्म स्थल पर्यायें इस ज्ञानका विषय है। न तो इस ज्ञानसे उत्कृष्ट कोई ज्ञान ही है, और न ऐसा कोई पदार्थ या पर्याय ही है, जो कि इस ज्ञानका विषय न हो । यह ज्ञान क्षायिक है, ज्ञानावरणकर्मका सर्वथा क्षय होनेसे प्रकट होता है । अतएव दूसरे क्षायोपशमिक ज्ञानोंमेंसे कोई भी ज्ञान इसके साथ नहीं रह सकता और न रहता ही हैं, यह एकाकी ही पाया जाता या रहा करता है, इसी लिये इसको केवल कहते हैं । यह सकल द्रव्य भावोंका परिच्छेदक है, इसलिये इसको परिपूर्ण कहते हैं । जिस तरह यह एक जीव पदा र्थको जानता है, उसी तरह सम्पूर्ण पर पदार्थों को भी जानता है, इसलिये इसको समग्र कहते हैं । - किसी भी मतिज्ञानादि क्षायोपशमिक ज्ञानसे इसकी तुलना नहीं हो सकती, इसलिये इसको असाधारण कहते हैं । इसको इन्द्रिय मन आलोक आदि किसी भी अवलम्बन या सहायककी अपेक्षा नहीं है, इसलिये इसको निरपेक्ष कहते हैं । ज्ञानावरण दर्शनावरण आदिके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाली मलदोष रूप अशुद्धियोंसे यह सर्वथा रहित है, इसलिये इसको विशुद्ध कहते हैं । यह समस्त पदार्थों का ज्ञापक है, इसीसे सम्पूर्ण तत्त्वोंका बोध होता है, इसलिये इसको सर्वभावज्ञापक कहते हैं । लोक और अलोकका कोई भी अंश इससे अपरिछिन्न नहीं है, इसलिये इसको लोकालोक विषय कहते हैं । अगुरुल घुगुणके निमित्तसे इसकी अनन्तपर्याय परिणमन होते हैं, इसलिये इसको अनन्तपर्याय कहते हैं । अथवा इसकी ज्ञेयरूप पर्याय अनन्त हैं, यद्वा इसके अविभागप्रतिच्छेद अनन्त हैं, इसलिये भी इसको अनंतपर्याय कहते हैं। मतलब यह कि अनन्त शक्ति और योग्यता के धारण करनेवाला यह ज्ञान सर्वथा अप्रतिम है । ५९ भाष्यम् – अत्राह - एषां मतिज्ञानादीनां युगपदेकस्मिनजीवे कति भवन्ति ? इति । अनोच्यते । अर्थ - प्रश्न- आपने ज्ञानोंका विषय निबन्ध जो बताया सो समझमें आया । अब यह बताइये, कि इन मतिज्ञानादि पाँच प्रकारके ज्ञानों में से एक समयमें एक जीवके कितने ज्ञान हो सकते हैं ? इसीका उत्तर देनेके लिये आगेका सत्र कहते हैं सूत्र - एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्भ्यः ॥ ३१ ॥ भाष्यम् - एषां मत्यादीनां ज्ञानानामादित एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन् जीवे आ चतुर्भ्य, कस्मिंश्चिज्जीवे मत्यादीनामेकं भवति, कस्मिंश्चिज्जीवे द्वे भवतः, कस्मिंश्चित् त्रीणि भवन्ति, कस्मिंश्चिच्चत्वारि भवन्ति । श्रुतज्ञानस्य तु मतिज्ञानेन नियतः सहभावस्तत्पूर्वकत्वात् । यस्य तु मतिज्ञानं तस्य श्रुतज्ञानं स्याद्वा न वेति । अत्राह - अथ केवलज्ञानस्य पूर्वैर्मतिज्ञानादिभिः किं सहभावो भवति नेत्युंच्यते । केचिदाचार्या व्याचक्षते, नाभावः किं तु तद १ - अतोऽग्रे " तदाथा " इत्यपि पाठान्तरम् । २- " नेति ? अत्रोच्यते " इति पाठान्तरम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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