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________________ सूत्र २७-२८-२९-३०।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ५३ प्यके ही होता है, और उसमें भी ऋद्धिप्राप्तको ही होता है और ऋद्धिप्राप्तोंमें भी सबको नहीं किन्तु किसी किसीके ही होता है । भाष्यम् - अत्राह - उक्तं मनः पर्यायज्ञानम् । अथ केवलज्ञानं किमिति । अत्रोच्यते ।केवलज्ञानं दशमेऽध्याये वक्ष्यते - " मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलमिति । " अत्राह - एषां मतिज्ञानादीनां कः कस्य विषयनिबन्धः ? इति । अत्रोच्यते ।- अर्थ - प्रश्न- आपने मनः पर्यायज्ञानका तो लक्षण और भेद विधान आदिके द्वारा निरूपण किया, परन्तु अब इसके बाद केवलज्ञानका निरूपण क्रमानुसार प्राप्त है, अतएव कहिये कि उसका स्वरूप क्या है ? उत्तर - केवलज्ञानका स्वरूप आगे चलकर इसी ग्रंथके दशवें अध्याय के प्रारम्भ में--पहले ही सूत्रमें इस प्रकार बतावेंगे कि “ मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । " वहीं पर उसका विशेष खुलासा समझना चाहिये, यहाँ पर भी उसका वर्णन करके पुनरुक्ति करने की आवश्यकता नहीं है । प्रश्न- यहाँपर ज्ञानके प्रकरणमें ज्ञानके मतिज्ञान आदि पाँच भेद बताये हैं । परन्तु यह कहिये, कि उनमें से किस किस ज्ञानकी किस किस विषयमें प्रवृत्ति हो सकती है ? क्योंकि उसके विना ज्ञानके स्वरूपका यथावत् परिज्ञान नहीं हो सकता । अतएव इस प्रश्नका उत्तर देने के लिये सूत्र कहते हैं, उसमें सबसे पहले क्रमानुसार मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका विषय बताते हैंसूत्र - मतिश्रुतयोर्निबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु ॥ २७ ॥ - भाष्यम्--मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोर्विषयनिबन्धो भवति सर्वद्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु । ताभ्यां हि सर्वाणि द्रव्याणि जानीते न तु सर्वैः पर्यायैः ॥ अर्थ – मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन दोनों का विषय सम्पूर्ण द्रव्यों में है, परन्तु उनकी सम्पूर्ण पर्यायोंमें नहीं है । इन ज्ञानोंके द्वारा जीव समस्त द्रव्योंको तो जान सकता है, परन्तु सम्पूर्ण पर्यायोंके द्वारा उनको नहीं जान सकता । भावार्थ — ये दोनों हीं ज्ञान परापेक्ष हैं, यह बात पहले ही बता चुके हैं। उन अपेक्षित पर कारणोंमेंसे इन्द्रियोंका विषय और क्षेत्र नियत है । अतएव उनकेद्वारा सम्पूर्ण द्रव्य तथा उनकी समस्त पर्यायोंका ज्ञान नहीं हो सकता । तथा मनकी भी इतनी शक्ति नहीं है, कि वह धर्मादिक सभी द्रव्योंकी सूक्ष्मातिसूक्ष्म सभी पर्यायों को जान सके । अतएव श्रु ग्रन्थ के अनुसार ये दोनों ही ज्ञान सम्पर्ण द्रव्यों को और उनकी कुछ पर्यायों को ही जान सकते हैं, उनकी सम्पूर्ण पर्यायोंको नहीं जान सकते । क्रमानुसार अवधिज्ञानका विषय बतानेको सूत्र कहते हैं १ - चार घाती कर्मों में से पहले मोहनीय कर्मका और फिर ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनोंका सर्वथा क्षय हो जानेपर केवलज्ञान प्रकट होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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