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________________ ५२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथमोऽध्यायः । गाहना होती, इसका जितना प्रमाण होता है, उतना ही अवधिज्ञानके जघन्य क्षेत्रका प्रमाण समझना चाहिये । इतने क्षेत्रमें जितने भी जघन्य द्रव्ये होंगे, उन सबको वह जघन्य अवधि - ज्ञानवाला जान सकता है । इसके ऊपर क्रमसे बढ़ता हुआ अवधिका क्षेत्र सम्पूर्ण लोकपर्यन्त हुआ करता है । और प्रत्येक अवधिज्ञान - अपने अपने योग्य क्षेत्रमें स्थित यथायोग्य द्रव्योंको जान सकता है । परन्तु मन:पर्ययज्ञानके विषय में ऐसा नहीं है। उसका क्षेत्र मनुष्य लोक प्रमाण ही है । वह उतने क्षेत्रके भीतर ही संज्ञी जीवकी होनेवाली मनःपर्यायोंको जान सकता है, बाहरकी नहीं । इसके सिवाय स्वामीकी अपेक्षासे भी दोनोंमें अन्तर है । वह इस प्रकार है कि - अवधि - ज्ञान तो संयमी साधु और असंयमी जीव तथा संयतासंयत श्रावक इन सभीके हो सकता है, तथा चारों ही गतिवाले जीवोंके हो सकता है । परन्तु मनःपर्यायज्ञान संयमी मनुष्य के ही हो सकता है, अन्यके नहीं हो सकता । इसी तरह विषयकी अपेक्षासे भी अवधि और मनःपर्याय में अन्तर | वह इस प्रकारसे कि अवधिज्ञान रूपी द्रव्योंको और उसकी असम्पूर्ण पर्यायोंको जानता है । परन्तु अवधि विषयका अनंतवां भाग मनःपर्यायका विषय । अतएव अवधिकी अपेक्षा मनःपर्यायज्ञानका विषय अतिशय सूक्ष्म है। भावार्थ -- यद्यपि संज्ञा संख्या लक्षण प्रयोजनादिकी अपेक्षासे भी इन दोनोंमें अन्तर है, परन्तु इनका अन्तर्भाव इन कारणों में ही हो जाता है, अतएव यहाँपर चार कारणों की अपेक्षा से ही विशेषताका उल्लेख किया है। इसी प्रकार यद्यपि क्षेत्रका प्रमाण अवधिकी अपेक्षा मन:पर्ययज्ञानका थोड़ा है, परन्तु फिर भी उत्कृष्ट मनः पर्यायज्ञानको ही समझना चाहिये । क्योंकि उसका विषय बहुतर और सूक्ष्मतर होनेसे प्रकृष्ट तथा स्वामी भी संयत मनुष्य ही होनेसे विशिष्ट हुआ करता है । जैसे कि अनुमानसे - धूमको देखकर होनेवाले अग्नि- ज्ञानकी अपेक्षा चक्षुरिन्द्रिय द्वारा होनेवाले अग्निज्ञानमें अधिक स्पष्टता रहा करती है । अथवा जैसे कि एक व्यक्ति तो अपने पठित ग्रंथका ही और एक ही प्रकारसे अर्थ कर सकता है, दूसरा व्यक्ति पठितापठित ग्रन्थोंका और अनेक प्रकारसे अर्थ कर सकता है, इनमेंसे जैसे दूसरे व्यक्तिका ज्ञान उत्कृष्ट समझा जाता है, उसी प्रकार अवधिज्ञानकी अपेक्षा मनःपर्यायज्ञानको भी उत्कृष्ट समझना चाहिये | इसके सिवाय जिस तरह अवधिज्ञान चारों गतिके जीवोंके उत्पन्न हो सकता है, वैसे मनःपर्याय नहीं होता । वह संयमी मनु १ - उत्सेधा गुलकी अपेक्षासे उत्पन्न व्यवहार सूच्यङ्गुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण भुजा कोटी और बेधमें परस्पर गुणा करनेसे जघन्य अवगाहनाका प्रमाण निकलता है । यथा-" अवरोगाहणमाणं उस्सेहंगुलअसंखभागस्स । सूइस्सय घणपदरं होदिहु तक्खेत्तसमकरणे ॥ ३७९॥ गो० जीवकाण्ड । २- - णोकम्मुरालसंचं मज्झिमजोगजियं सविस्सचयं । लोयविभत्तं जाणदि अवरोही दव्वदो णियमा ॥ ३७६ ॥ गो० जी० । अर्थात् विस्रसोपचयसहित और मध्यम योगके द्वारा संचित डेढ़ गुणी हानिमात्र समयप्रबद्धरूप औदारिक नोकर्मके समूहमें लोकप्रमाणका भाग देने से जो लब्ध आवे, वही अवधिज्ञानके जघन्य द्रव्यका प्रमाण है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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