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________________ २८ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथमोऽध्यायः अपेक्षा, और उभयसन्निधानकी अपेक्षा । आत्मसन्निधानका अभिप्राय अभ्यन्तरसन्निधान और परसन्निधानका अभिप्राय बाह्यसन्निधान है । बाह्य और अभ्यन्तर दोनों सन्निधानोंके मिश्रणको उभयसन्निधान कहते हैं । अतएव यदि कोई अधिकरणकी अपेक्षासे प्रश्न करे, कि सम्यग्दर्शन कहाँ रहता है, तो उसका उत्तर इन तीन सन्निधानों की अपेक्षासे दिया जा सकता है। आत्मसन्निधानकी अपेक्षा कहना चाहिये, कि जीवमें सम्यग्दर्शन रहता है । इसी तरह ज्ञान और चारित्र आदिके विषयमें भी समझ लेना चाहिये । जैसे कि जीवमें ज्ञान है, अथवा जीव में चारित्र है, इत्यादि । बाह्य सन्निधानकी अपेक्षा जीवमें सम्यग्दर्शन नोजीवमें सम्यग्दर्शन, इन विकल्पों को पहले कहे अनुसार आगममें कहे हुए अनुसार समझ लेना चाहिये । इसी तरह उभयसन्निधानकी अपेक्षासे भी अभूत और सद्भूतरूप भङ्गोंके विकल्प आगमके अनुसार समझ लेने चाहिये । स्थितिका अर्थ कालप्रमाण है । अर्थात् सम्यग्दर्शन कितने कालतक रहता है, इस बातको स्थिति अनुयोगके द्वारा जानना चाहिये । सम्यग्दृष्टि के दो भेद हैं- एक सादिसांत और दूसरा सादि अनंत । सम्यग्दर्शन सादि और सांत ही हुआ करता है । उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक छयासठ सागैर प्रमाण है, सम्यग्दृष्टि सादि होकर अनन्त होते हैं । तेरहवें गुणस्थानवर्त्ती सयोगकेवली अरिहंत भगवान्, शीले- ब्रह्मचर्यकी स्वामिताको प्राप्त चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली भगवान्, और संसारातीत सिद्धपरमेष्ठी ये सादि अनन्त सम्यग्दृष्टि हैं । विधान नाम भेदोंका है । सम्यग्दर्शन हेतुभेदकी अपेक्षासे तीन प्रकारका कहा जा सकता है । क्योंकि वह सम्यग्दर्शनको आवृत करनेवाले दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयसे अथवा उपशमसे यद्वा क्षयोयशमसे उत्पन्न हुआ करता है । अतएव सम्यग्दर्शन भी तीन प्रकारका समझना चाहिये-क्षयसम्यग्दर्शन उपशमसम्यग्दर्शन और क्षयोपशमसम्यग्दर्शन । प्रतिपक्षी दर्शनमोहनीय कर्म और चार अनन्तानुबन्धी कषाय इनका क्षय होनेपर जो सम्यग्दर्शन प्रकट हो, उसको क्षय सम्यग्दर्शन अथवा क्षायिकसम्यग्दर्शन समझना चाहिये । और जो सम्यग्दर्शन इन कर्मों के उपशान्त होनेपर उद्भूत हो, उसको उपशमसम्यग्दर्शन अथवा औपशमिकसम्यग्दर्शन समझना चाहिये । तथा इन कर्मो का क्षय और उपशम दोनों होनेपर जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो, उसको क्षयोपशम अथवा क्षायोपशमिकसम्यग्दर्शन समझना चाहिये । इनमें विशेषता यह है कि औपशमिक क्षायोपशमिक और क्षायिक इनकी विशुद्धि क्रमसे उत्तरोत्तर अधिक अधिक हुआ करती है । १ - उपमामानका एक भेद है, इसका स्वरूप गोम्मटसार कर्मकाण्ड में लिखा है । २- “ सीलेसिं संपत्तो निरुद्धणिस्सेसआसवो जीवो । कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होदी ॥ ६५ ॥ ( गोम्मटसार जीवकाण्ड ) इस कथन के अनुसार अयोगकेवलीको शैलेशी प्राप्त समझना चाहिये । क्योंकि शीलके अठारह हजार भेदोंकी पूर्णता यहीं पर होती है । ३ - दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार औपशमिक और क्षायिकसम्यग्दर्शन की अपेक्षा क्षायोपशमिकसम्यग्दर्शनकी विशुद्धि कम हुआ करती है । क्योंकि क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनमें प्रतिपक्षी कर्मों से सम्यक्त्व नामकी देशघाती प्रकृतिका उदय भी रहा करता है, जिसके निमित्तसे उसमें चल मलिन और अगाढ़ दोष उत्पन्न हुआ करते हैं । औपशमिक और क्षायिकमें उसका उदय नहीं रहता, अतएव दोष भी उत्पन्न नहीं होते । तथा निर्मलता की अपेक्षा औपशमिक और क्षायिक दोनों सम्यग्दर्शन समान हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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