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________________ सूत्र ७ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २७ विधं सम्यग्दर्शनम् । तदावरणीयस्य कर्मणो दर्शनमोहस्य च क्षयादिभ्यः । तद्यथा-क्षयसम्यद्गर्शनम्, उपशमसम्यग्दर्शनम्, क्षयोपशमसम्यग्दर्शनमिति । अत्रचौपशमिकक्षायौपशमिकक्षायिकाणां परतः परतो विशुद्धिप्रकर्षः । किं चान्यत___अर्थ-ये निर्देश आदि जो छह अनुयोग द्वार हैं, उनसे सभी भावरूप जीवादिक तत्त्वोंका उनके भेद प्रभेदरूपसे विस्तारके साथ अधिगम हुआ करता है । जैसे कि निर्देशकी अपेक्षा किसीने पछा कि-जीव किसको कहते हैं ? तो उसका उत्तर देना, कि जो द्रव्य औपशमिक आदि भावोंसे युक्त है, उसको जीव कहते हैं। इसी तरह यदि कोई सम्यग्दर्शनके विषयमें निर्देशकी अपेक्षा प्रश्न करे, कि सम्यग्दर्शन किसको कहते हैं ? उसका स्वरूप क्या है ? तो उसको उत्तर देना, कि वह जीव द्रव्यस्वरूप है । क्योंकि नोस्कन्ध और नोग्रामरूप अरूपी सम्यग्दृष्टि जीवरूप ही वह होता है । स्वामित्वके विषयमें यदि कोई पूछे, कि सम्यग्दर्शन किसके होता है ? तो उसका उत्तर तीन अपेक्षाओंसे दिया जा सकता है, आत्मसंयोगकी अपेक्षा परसंयोगकी अपेक्षा और उभयसंयोगकी अपेक्षा । अर्थात् इन में से किसी भी एक दो अथवा तीनों ही प्रकारसे सम्यग्दर्शन के स्वामित्वका व्याख्यान करना चाहिये । इनमें से पहले भेदकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनका स्वामी जीव है-अर्थात् आत्मसंयोगकी अपेक्षा सम्यग्दर्शन जीवके होता है । दूसरे भेद-परसंयोगकी अपेक्षा सम्यग्दर्शन एक जीवके या एक अजीवके अथवा दो जीवोंके या दो अजीवोंके यद्वा बहुतमे जीवोंके या बहुतसे अजीवोंके हो सकता है, इस प्रकार इम भेदकी अपेक्षा स्वामित्वके भेदोंको समझना चाहिये । तीसरे भेद-उभयसंयोगकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनके स्वामित्वमें ये विकल्प नहीं होते-एक जीवके, नोजीव-ईषत् जीवके, दो जीवके या दो अजीवके, बहुतसे जीवोंके या बहुतसे अजीवोंके, इनके सिवाय अन्य विकल्प हो सकते हैं। साँधनकी अपेक्षासे यदि कोई पूछे, कि सम्यग्दर्शन किसके द्वारा होता है ? उसकी. उत्पत्तिका कारण क्या है ? तो उसका उत्तर यह है, कि सम्यग्दर्शन निसर्ग और अधिगम इन दो हेतुओंसे उत्पन्न हुआ करता है। इनमेंसे निसर्गका स्वरूप पहले बता चुके हैं । और अधिगमका अभिप्राय यहाँपर सम्यग्व्यायाम समझना चाहिये । अर्थात् ऐसी शुभ क्रियाएं करना, कि जिनके निमित्तसे सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति हो सके । निसर्गज तथा अधिगमज इस तरह दोनों ही प्रकारका सम्यग्दर्शन अपने अपने आवरण कर्मके क्षयसे अथवा उपशमसे यद्वा क्षयोपशमसे हुआ करता है । अधिकरण तीन प्रकारका माना है-आत्मसन्निधानकी अपेक्षा, परसन्निधानकी १-जाननेके उपायोंको अनुयोग कहते हैं । २- लक्षण अथबा स्वरूपके कहनेको निर्देश कहते हैं । " निर्देशः स्वरूपाभिधानम् । "-सर्वार्थसिद्धिः । ३-स्वामित्वमाधिपत्यम् । ४-साधनमुत्पत्तिनिमित्तम् । ५-इसी अध्यायके दूसरे सूत्रकी व्याख्यामें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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