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________________ ४५४ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [दशमोऽध्यायः अनुयोगके द्वारा सिद्ध न्यून हैं, और किस अनुयोगके द्वारा सिद्ध अधिक हैं। यही बात इस अनुयोगके द्वारा बताई जाती है । एक एक अनुयोगके अवान्तरभेदोंके द्वारा सिद्ध जीवोंका अल्पबहुत्व भी इसीके द्वारा समझ लेना चाहिये । अतएव क्रमानुसार क्षेत्रसिद्धादि जीवोंका अल्पबहुत्व यहाँपर क्रमसे बताते हैं। - क्षेत्रसिद्धोंमें कोई जन्मसिद्ध और कोई संहरणसिद्ध होते हैं। इनमें से जो कर्मभूमिसिद्ध और अकर्मभूमिसिद्ध हैं, उनका प्रमाण सबसे कम है। किन्तु इनमें जो संहरणसिद्ध हैं, उनका प्रमाण सबसे कम हैं, जन्मसिद्धोंका प्रमाण उनसे असंख्यातगुणा है। संहरण भी दो प्रकारका माना है।परकृत और स्वयंकृत । देवोंके द्वारा तथा चारणऋद्धिके धारक मुनियोंके द्वारा और विद्याधरोंके द्वारा परकृत संहरण हुआ करता है । स्वयंकृत संहरण चारणऋद्धिके धारक मुनि और विद्याधरोंका ही हुआ करता है । इनके क्षेत्रका विभाग इस प्रकार है-कर्मभूमि अकर्मभूमि समुद्र द्वीप ऊर्ध्व अधः और तिर्यक् इस तरह तीनों लोक इसके विषय हैं । इनमेंसे सबसे कम ऊर्ध्वलोकसिद्धोंका प्रमाण है । अधोलोकसिद्ध उनसे संख्यातगुणे हैं, और अधोलोक सिद्धासे संख्यातगुणे तिर्यग्लोकसिद्ध होते हैं । इसी प्रकार समुद्रसिद्धोंका प्रमाण सबसे अल्प है। उससे संख्यातगुणा द्वीपसिद्धों का प्रमाण है । इस प्रकार अव्यञ्जितके विषयमें समझना चाहिये । व्यञ्जितके विषयमें भी लवणसमुद्रसे सिद्ध सबसे अल्प हैं, उनसे संख्यातगुणे कालोदसमुद्रसे सिद्ध हैं । कालोदसिद्धोंसे संख्यातगुणे जम्बूद्वीपसिद्ध और जम्बूद्वीपसिद्धोंसे संख्यातगुणे धातकीखण्डसे सिद्ध होनेवाले हैं, और धातकीखण्डसिद्धोंसे संख्यातगुणे पुष्करार्धसिद्ध हैं । इस प्रकार क्षेत्रविभागकी अपेक्षासे क्षेत्रसिद्धोंका अल्पबहुत्व-संख्याकृत तारतम्य समझना चाहिये। क्षेत्रसिद्धोंके अनन्तर क्रमानुसार कालसिद्धोंके अल्पबहुत्वको बतानेकेलिये भाष्यकार कहते हैं। भाष्यम्-काल-इति त्रिविधी विभागो भवति।-अवसर्पिणी उत्सर्पिणी अनवसर्पिण्युत्सर्पिणीति। अत्र सिद्धानां व्यजिताव्यजितविशेषयुक्तोऽल्पबहुत्वानुगमः कर्तव्यः। पूर्वभावप्रज्ञा. पनीयस्य सर्वस्तोका उत्सर्पिणीसिद्धाः, अवसर्पिणीसिद्धा विशेषाधिका अनवसर्पिण्युत्सर्पिणीसिद्धाः सरंव्येयगुणा इति । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्याकाले सिध्यति । नास्त्यल्पबहुत्वम् ॥ गतिः।-प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्य सिद्धिगतौ सिध्यति । नास्त्यल्पबहुत्वम् । पूर्वभावप्रतापनीयस्यानन्तरपश्चात्कृतिकस्य मनुष्यगतौ सिध्यति । नास्त्यल्पबहुत्वम् । परम्परपश्चात्कृतिकस्यानन्तरा गतिश्चिन्त्यते । तद्यथा । सर्वस्तोकास्तिर्यग्योन्यनन्तरगतिसिद्धा मनुष्येभ्योऽनन्तरगतिसिद्धाः संख्येयगुणाः । नारकेभ्योऽनन्तरगतिसिद्धाः संख्येयगुणा देवेभ्योऽनन्तरगतिसिद्धाः संख्येयगुणा इति ॥ अर्थ-कालका विभाग तीन प्रकारका हो सकता है ।-अवर्पिणी उत्सर्पिणी और अनवसर्पिण्युत्सर्पिणी। जिसमें आयु काय बल वीर्य बुद्धि आदिका उत्तरोत्तर हास होता जाय, उसको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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