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________________ ४५२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [ दशमोऽध्यायः सप्तरत्नयोऽङ्गुलपृथक्त्वेहीनाः । एतासु शरीरावगाहनासु सिध्यति, पूर्वभावप्रज्ञापनीयस्य प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्य तु एतास्वेव यथास्वं त्रिभागहीनासु सिध्यति । ___अन्तरम्-सिध्यमानानां किमन्तरम् । अनन्तरं च सिध्यन्ति सान्तरंच सिध्यन्ति । तत्रानन्तरं जघन्येन द्वौ समयौ उत्कृष्टनाष्ट्री समयान् । सान्तरं जघन्येनैकं समयमुत्कृष्टेन षण्मासाः इति। संख्या-कत्येकसमये सिध्यन्ति, जघन्येनैकः उत्कृष्टेनाष्टशतम् ॥ अर्थ-अवगाहनाके द्वारा सिद्धोंकी विशेषता इस प्रकार बताई जा सकती है, कि कौन सिद्ध कितनी अवगाहनाका धारक है । अथवा किसने कितनी शरीरकी अवगाहनामें रहकर सिद्धि प्राप्त की है । इसके लिये पहले शरीरकी अवगाहनाका प्रमाण बताना आवश्यक है । अवगाहना दो प्रकारकी हो सकती है। एक उत्कृष्ट और दूसरी जघन्य । क्योंकि मध्यके अनेक भेदोंका इन्हीं दो भेदोंमें समावेश हो जाता है। उत्कृष्ट अवगाहनाका प्रमाण पाँचसौ धनुषसे पृथत्व धनुष अधिक माना है, और जघन्य अवगाहनाका प्रमाण सात रनिमेंसे पृथत्त्व अंगल कम बताया है। इनमेंसे किसी भी अवगाहनामें अथवा इनके मध्यवर्ती अनेक भेदरूप अवगाहनाओंमेंसे किसी भी अवगाहनामें स्थित जीव सिद्धिको प्राप्त किया करता है। यह विषय पर्वभावप्रज्ञापननयकी अपेक्षा समझना चाहिये । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापननयकी अपेक्षा देखा जाय, तो इन्हीं अवगाहनामसे यथायोग्य किसी भी अवगाहना की त्रिभागहीन अवगाहनामें सिद्ध रहा करते हैं । भावार्थ-अवगाहना नाम घिरावका है । कौनसा शरीर कितने आकाशप्रदेशोंको रोकता है, इसीका नाम शरीरावगाहना है । मनुष्यशरीरकी जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहनाका प्रमाण उपर बताया गया है, जिस शरीरसे जीव सिद्धि प्राप्त किया करते हैं, उस शरीरकी अवगाहनाका प्रमाण और पूर्वभावप्रज्ञापनकी अपेक्षा वही सिद्धिकी अवगाहनाका प्रमाण समझना चाहिये । क्योंकि जीवकी अवगाहना शरीरके प्रमाणानुसार ही हुआ करती है । क्योंकि जीवको स्वदेह प्रमाण रहनेवाला माना है। किन्तु सिद्ध-अवस्थामें शरीरसे सर्वथा रहित होजानेपर उस आत्माकी अवगाहना त्रिभागहीन होजाया करती है। जिस शरीरसे मुक्ति-लाभ किया करता है, उसका जितना प्रमाण हो, उसमेंसे तृतीयांश कम करनेपर जो प्रमाण शेष रहे, उतना ही सिद्ध-अवस्था प्राप्त होजानेपर उस जीवका प्रमाण कायम रहता है । प्रत्युत्पन्ननयकी अपेक्षा यही सिद्धोंकी अवगाहनाका प्रमाण है । अन्तरअनुयोगके द्वारा सिद्धोंकी विशेषता बतानेका अभिप्राय यह है, कि जो जीव सिद्धिको प्राप्त किया करते हैं, उनमेंसे परस्परमें कितना अन्तराल-कितने समयका व्यवधान रहा करता है । इसके लिये यह बतानेकी आवश्यकता है, कि एक साथ अनेक जीव सिद्धि प्राप्त किया करते हैं या क्या है और एक समयमें जितने भी जीवोंने सिद्धि प्राप्त की हो, उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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