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________________ ४४२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ दशमोऽध्यायः होता, तबतक वह चक्र हस्त दण्ड संयोगके न रहनेपर भी बराबर घमता ही रहता है, इसी प्रकार कर्मके निमित्तको पाकर यह संसारी प्राणी कर्मके प्रयोगको पाकर संसारमें भ्रमण किया करता था, उस प्रयोगसे जो संस्कार पैदा हो गया है, उसके वशीभत हुआ यह जीव भी कर्मका निमित्त छुट जानेपर भी गमन किया करता है । इसीको पूर्वप्रयोग कहते हैं। यही सिद्ध होनेवाले जीवकी गतिमें हेतु होता है, अथवा यों हना चाहिये, कि इस पूर्वप्रयोगके द्वारा ही मुक्त जीवोंकी गति हुआ करती है । इसके सिवाय एक कारण यह भी है कि भाष्यम्-असङ्गत्वात् । पुद्गलानां जीवानां च गतिमत्त्वमुक्तं नान्येषां द्रव्याणाम् । तत्राधोगौरवधर्माणः पुद्गला ऊर्ध्वगौरवधर्माणो जीवाः । एष स्वभावः । अतोऽन्यासङ्गादिजनिता गतिर्भवति । यथा सत्स्वपि प्रयोगादिष गतिकारणेष जातिनियमेनाधस्तिर्यग्रर्ध्व च स्वाभाविक्यो लोष्टवाय्वनीनां गतयो दृष्टाः। तथा सङ्गविनिर्मुक्तस्योर्ध्वगौरवादूर्ध्वमेव सिध्यमानगतिर्भवति । संसारिणस्तु कर्मसङ्गादधस्तिर्यगूज़ च । किं चान्यत् । बन्धच्छेदात्-यथा रज्जुबन्धच्छेदात्पेडाया बीजकोशबन्धनच्छेदाच्चैरण्डबीजानां गतिर्दृष्टा तथा कर्मबन्धनच्छेदात्सिध्यमानगतिः। किं चान्यत् । अर्थ–सङ्गका अभाव हो जाता है। इससे भी मुक्त-जीवोंकी गति सिद्ध होती है। सम्पूर्ण द्रव्योंमेंसे जीव और पुद्गल ये दो ही द्रव्य ऐसे हैं, जिनको कि गतिमान् माना है, इनके सिवाय और कोई भी द्रव्य गतिमान् नहीं है । इनमें भी जो पुद्गल द्रव्य हैं, वे अधोगौरवधर्मके धारण करनेवाले हैं, और जो जीव-द्रव्य हैं, वे ऊर्ध्वगौरवधर्मको धारण करनेवाले हैं। यह इनका स्वभाव ही है। स्वभावके विरुद्ध गति सङ्गादि कारणोंसे हुआ करती है। जैसे कि विरुद्ध गतिके कारण प्रयोग आदिके रहते हुए विरुद्ध गति होती है, किन्तु उसके न रहनेपर लोष्ठ वायु और अग्निकी गति उस उस जातिके नियमानुसार क्रमसे अधः तिर्यक् और ऊर्ध्व हुआ करती है। उसी प्रकार सङ्ग रहित मुक्त जीवकी भी सिध्यमान-गति ऊर्ध्व दिशाकी तरफ हुआ करती है, क्योंकि जीव स्वभावसे ही ऊर्ध्व-गौरवको धारण करनेवाला है। भावार्थ-सङ्ग नाम सम्बन्धका है। बाह्य कारणविशेषका सम्बन्ध पाकर द्रव्यकी स्वभावके विरुद्ध भी गति हो सकती है, किन्तु वैसा सम्बन्ध न रहनेपर स्वभाविकी--गति ही होती है। पुद्गल द्रव्य सामान्यतया अधोगतिशील है, और जीव द्रव्य ऊर्ध्वगतिशील है । यदि इनके लिये स्वभावका प्रतिबन्धक कारण न मिले, तो अपनी अपनी जातिके नियमानुसार ही गमन किया करते हैं। जिस प्रकार वायु तिर्यगू गतिशील है। परन्तु उसके लिये यदि प्रतिबन्धक कारण मिल जाय, तो वह अधः और ऊर्ध्व दिशाकी तरफ भी गमन किया करती है, अन्यथा तिर्यक् ही गमन करती ह, तथा जिस प्रकार अग्नि स्वभावसे ऊर्ध्व-गमन करनेवाली है, अतएव उसको यदि प्रतिबन्धक कारण मिल जाय, तो अधः अथवा तिर्यक भी गमन किया करती है, नहीं तो ऊर्ध्व-गमन ही करती है । उसी प्रकार जीव द्रव्यके विषयमें समझना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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