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________________ सूत्र ४-५-६।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ४४१ क्षय अथवा अभावके अनन्तर ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिये । क्योंकि समस्त कर्मोंके क्षयके अनन्तर और औपशमिकादि भावोंके अभावके अनन्तर मुक्त-जीव ऊर्ध्व-गमन करता है । कर्मोका क्षय होते ही इस जीवको एक ही क्षणमें एक साथ तीन अवस्थाएं प्राप्त हुआ करती हैं ।-शरीरका वियोग, और सिध्यमान-गति तथा लोकके अन्तमें प्राप्ति । जिस प्रकार किसी भी प्रयोग-परिणामादिके द्वारा उत्पन्न होनेवाली गति, क्रियामें उत्पत्ति, कार्यारम्भ और विनाश ये तीनों ही भाव युगपत्-एक ही क्षणमें होते, या पाये जाते हैं, उसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये । जिस क्षणमें कर्मोंका विनाश होता है, उसी क्षणमें यह जीव शरीरसे वियुक्त होकर सिध्यमान-गति और लोकके अन्तको प्राप्त कर लिया करता है। उस जीवकी तीनों ही अवस्थायें एकसाथ और एक ही क्षणमें हुआ करती हैं। भावार्थ-जैसा कि वस्तुका स्वरूप ही पहले बता चुके हैं, कि “ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्त् । " उसी प्रकार संसारावस्थाको छोड़कर मुक्तावस्थाको प्राप्त होनेवाले जीवमें भी तीनों बातें युगपत् पाई जाती हैं । ये तीनों बातें एक ही क्षणमें सिद्ध हो जाती हैं। भाष्यम्-अत्राह-प्रहीणकर्मणो निरास्त्रवस्य कथं गतिर्भवतीति ? अत्रोच्यते अर्थ-प्रश्न—जिसके सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो चुके हैं, और नवीन कर्मोंका आस्रवआना भी रुक गया है, उसका गमन किस तरह हो सकता है ? भावार्थ-संसारमें कर्मसहित जीवका ही एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रको गमन होता हुआ देखनेमें आता है, और उसके नवीन कर्मोंका आस्रव भी हुआ करता है। किन्तु मुक्त-जीव दोनों बातोंसे रहित है, अतएव उसके ऊर्ध्व-गमन किस प्रकार हो सकता है ? इस बातको बतानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंसूत्र-पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वादन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच तद्गतिः॥६॥ भाष्यम्-पूर्वप्रयोगात् । यथा हस्तदण्डचक्रसंयुक्तसंयोगात्पुरुषप्रयत्नतश्चाविद्धं कुलालचक्रमुपरतेष्वपि पुरुषप्रयत्नहस्तदण्डचक्रसंयोगेषु पूर्वप्रयोगाद्भमत्येवासंस्कारपरिक्षयात् । एवं यःपूर्वमस्य कर्मणा प्रयोगो जनितः स क्षीणेऽपि कर्मणि गतिहेतुर्भवति । तत्कृता गतिः। किं चान्यत्. अर्थ-कर्म और आस्रवसे रहित मुक्त-जीवकी ऊर्ध्व-गति होनेमें अनेक हेतु हैं। . उनमें से पहला हेतु पूर्वप्रयोग है । जिसका आशय इस प्रकार है, कि कुम्भारका चक्र हस्तकुम्भारका हाथ और दण्ड तथा चक्रके सम्मिलित संयोगको पाकर पुरुषके प्रयत्नसे आविद्ध होकर भ्रमण किया करता है, और वह उन पुरुष प्रयत्न तथा हस्त दण्ड चक्र संयोगरूप कारणोंके छूट जानेपर भी तबतक घूमता ही रहता है, जबतक कि उसमें वह पहली वारका प्रयोग मौजूद रहता है । पुरुषप्रयत्नसे एक वार जो संस्कार पैदा हो जाता है, वह जबतक नष्ट नहीं ५द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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