SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 457
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ नवमोऽध्यायः 1 जो उसका भले प्रकार पालन करते हैं, किन्तु जो शरीर उपकरण और विभूषाका भी अनुवर्तन करते हैं - शरीर और उपकरणोंको सुसंस्कृत तथा विभूषित किया करते हैं- यद्वा शरीरादिका विभूषित रहना पसंद करते हैं, जो ऋद्धि और यशकी कामना रखते हैं, और जो सात गौरवको धारण करनेवाले हैं, जिन्होंने अभीतक परिचार-परिवारका परित्याग नहीं किया है, जो छेदचारित्रकी शलता - कर्बुरता से युक्त हैं, उन निर्ग्रन्थोंको बकुश कहते हैं । कुशील दो प्रकार के होते हैंप्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील । इनमें से जो निर्ग्रन्थताको तो अखण्डितरूपसे पालते हैं, किन्तु जिनकी इन्द्रियाँ अनियत हैं-अभी जिनके इन्द्रियोंकी लोलुपता लगी हुई है, अतएव जो कदा चित् किसी प्रकारसे किन्हीं किन्हीं उत्तरगुणोंमें विराधना उत्पन्न करते रहते हैं उनको प्रतिसेवनाकुशील कहते हैं । जो अधस्तन समस्त कषायों को जीत चुके हैं, और इसीलिये संयत अवस्थाओंको जो परिपूर्ण रखनेवाले हैं, फिर भी जिनके संज्वलनकषाय अभीतक उद्रेक-बढ़तीको प्राप्त हो जाती है, उनको कषायकुशील कहते हैं । जिनके राग द्वेष कषाय सर्वथा नष्ट हो चुके हैं, किन्तु अभीतक जिनको केवलज्ञानका लाभ नहीं हुआ है, ऐसे ईर्ष्यापथको प्राप्त वीतराग छद्मस्थाको निर्ग्रन्थ कहते हैं । ईर्यानाम योगका है, और पंथा नाम संयमका है । अतएव योगसहित संयमको ईर्यापथ कहते हैं । ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानको वीतरागछद्मस्थ कहते हैं। सयोगकेवली भगवान् और शैलेशिताको प्राप्त - अयोगकेवली भगवान्को स्नातक निर्ग्रन्थ कहते हैं । इस प्रकार निर्ग्रन्थों के ये पाँच भेद हैं । सामान्यतया सभी निर्ग्रन्थ कहे जाते हैं, फिर भी इनके भेदों में कुछ कुछ विशेषताएं हैं । उनको भाष्यकारने यहाँ बताया है। फिर भी किन किन कारणोंसे इनमें भेद सिद्ध होता है, उनको बताने के लिये सूत्रकार स्वयं कहते हैंसूत्र - संयमश्रुत प्रतिसेवनातीर्थलिङ्गलेश्योपपातस्थानविकल्पतः साध्याः ॥ ४९ ॥ भाष्यम् - एते पुलाकादयः पञ्च निर्ग्रन्थविशेषा एभिः संयमादिभिरनुयोगविकल्पैः साध्या भवन्ति । तद्यथा - संयमः कः कस्मिन् संयमे भवतीत्युच्यते - पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीला द्वयोः संयमयोः - सामायिके छेदोपस्थाप्ये च । कषाय कुशीलो द्वयोः- परिहारविशुद्धौ सूक्ष्मसंपराये च । निर्ग्रन्थस्नातकावेकस्मिन्यथारव्यात संयमे ॥ अर्थ — ऊपर के सूत्र में निर्ग्रन्थों के पुलाकादि जो पाँच विशेष भेद बताये हैं, उनमें जो जो विशेषता है, उसको संयम श्रुत प्रतिसेवना तीर्थ लिङ्ग लेश्या उपपात और स्थान के भेदसे सिद्ध करनी चाहिये | १ - शील के १८ हजार भेद हैं। उनकी परिपूर्णता चौदहवें गुणस्थानमें ही होती है । अतएव अयोगकेवलियोंको शैलेशीप्राप्त कहते हैं । यथा--सीलेसिं संपत्तो णिरुद्वाणिस्सेसआसवो जीवो । कम्मरयविप्पमुको गय. जोगो केवली होदि ॥ ६५ ॥ गोम्मटसार जीवकांड | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy