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________________ सूत्र ४७-४८। ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ४३१ जा चुका है। सबसे पहला स्थान सम्यग्दृष्टिका है । उसके होनेवाली निर्जरा किस स्थानकी अपेक्षा असंख्यातगुणी है, सो यहाँपर नहीं बताया है । अतएव समझना चाहिये, कि सम्यक्त्वको ग्रहण करने के लिये सन्मुख हुए और इसी लिये अधःकरणादिमें प्रवृत्त मिथ्यादृष्टिके जितनी कर्मोंकी निर्जरा होती है, उससे असंख्यातगुणी निर्जरा सम्यग्दृष्टिके हुआ करती है । सम्यग्दृष्टिले प्रयोजन असंयतसम्यग्दृष्टिका है, और श्रावक शब्दसे देशाविरत को तथा विरत शब्द से छट्टे सातवें गुणस्थानवर्तियों को लिया है । अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनका अभिप्राय यह है, कि—अनादिमिध्यादृष्टि जीव जो उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ करता है, उसके अनन्तानुबंधीकषाय सत्तामें रहती ही है । किन्तु ऐसा जीव श्रेणी आरोहण नहीं कर सकता, जिसके कि अनन्तानुबन्धीकर्म सत्तामें बैठा हो । अतएव श्रेणी आरोहण करने के लिये उन्मुख - तयार हुआ उपशम सम्यग्दृष्टि अप्रमत्त सातिशय अप्रमत्त होकर अनन्तानुबंधी कषायको अप्रत्याख्यानावरण अथवा प्रत्याख्यानावरण या संज्वलनरूप परिणत कर देता है, इसी क्रियाको अनन्तानु बन्धका विसंयोजन कहते हैं । जो दर्शनमोहकर्मका क्षय करके क्षायिकसम्यक्त्वको प्राप्त हो चुके हैं, उनके अनन्तवियोजकसे भी असंख्यगुणी निर्जरा होती है । क्षायिकसम्यग्दृष्टि से भी उपशमश्रेणी के आठवें नौवें और दशवें गुणस्थानवालोंके और उनसे भी ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती के तथा उपशान्तमोहसे भी क्षपकश्रेणी के आठवें नौवें और दशर्वे गुणस्थानवालोंके एवं क्षपकसे बारहवें गुणस्थानवालोंके और उनसे तेरहवें चौदहवें गुणस्थानवर्तियोंके असंख्यातगुणी निर्जरा होती है । उपर्युक्त संवर और निर्जरा के कारणोंका पूर्णतया पालन वे ही कर सकते हैं, जोकि निर्ग्रन्थ हैं । वे निर्ग्रन्थ कितने प्रकार के होते हैं, इस बातको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं: सूत्र - पुलाकबकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः ॥४८॥ भाष्यम् - पुलाको बकुशः कुशीलो निर्ग्रन्थःस्नातक इत्येते पञ्च निर्ग्रन्थविशेषा भवन्ति । तत्र सततमप्रतिपातिनो जिनोक्तादागमान्निर्ग्रन्थपुलाकाः । नैर्ग्रन्थ्यं प्रति प्रस्थिताः शरीरोपकरण विभूषानुवर्तिन ऋद्धियशस्कामाः सातगौरवाश्रिता अविविक्तपरिवाराश्छेदशबलयुक्ता निर्ग्रन्थाः बकुशाः कुशीला' द्विविधाः प्रतिसेवनाकुशीलाः कषायकुशीलाश्च । तत्र प्रतिसेवना कुशीला नैर्ग्रन्थ्यं प्रति प्रस्थिता अनियतेन्द्रियाः कथंचित्किंचिदुत्तरगुणेषु विराधयन्तश्चरन्ति ते प्रतिसेवनाकुशीलाः । येषां तु संयतानां सतां कथंचित्संज्वलनकषाया उदीर्यन्ते ते कषायकुशीलाः । ये वीतरागच्छद्मस्था ईर्यापथप्राप्तास्ते निर्ग्रन्थाः । ईर्ष्या योगः पन्था संयमः योगसंयमप्राप्ता इत्यर्थः । संयोगाशैलेशीप्रतिपन्नाञ्च केवलिनः स्नातका इति ॥ अर्थ – सामान्यतया निर्ग्रन्थों के पाँच विशेष भेद हैं- पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ, और स्नातक । इनमें से प्रत्येकका स्वरूप इस प्रकार है- जो जिनभगवान् के उपदिष्ट आगमसे कभी भी विचलित नहीं होते, उनको पुलाकनिर्ग्रन्थ कहते हैं । जो निर्ग्रन्थताके प्रति उद्युक्त हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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