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________________ सूत्र २२ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । दुक्कडं" इस तरहके भावोंका संप्रयोग होनेको-वचन द्वारा प्रयुक्त ऐसे विचारोंको प्रतिक्रमण कहते हैं । प्रतिक्रमण प्रत्यवमर्श प्रत्याख्यान और कायोत्सर्गकरण ये सब शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं। जिसमें आलोचन और प्रतिक्रमण दोनों ही करने पड़ें, उसको तदुभय नामका प्रायश्चित्त कहते हैं । विवेक विवेचन विशोधन और प्रत्युपेक्षण ये सब शब्द पर्यायवाचक हैं । मिली हुई वस्तुओंके पृथक् पृथक् करनेको विवेक कहते हैं । यह प्रायश्चित्त मिली हुई अन्न पान उपकरण आदि वस्तुओंके विषयमें प्रवृत्त हुआ करता है। अर्थात् मिले हुए अन्न पान आदिके पृथक् पृथक् करनेका नाम विवेकप्रायश्चित्त है । व्युत्सर्ग नाम प्रतिष्ठापनका है। यह प्रायश्चित्त अनेष. णीय-एषणासे रहित अन्न पान उपकरणादिके विषयमें जिनका कि विवेक अशंकनीय है, अथवा जिनका विवेक-पृथक्करण नहीं किया जा सकता, प्रवृत्त हुआ करता है । तपके भेद बताये जा चुके हैं, अनशन आदि बाह्य तपके भेद पहले लिख चुके हैं । इनके सिवाय प्रकीर्णकतपके भी भेद चन्द्रप्रतिमा आदि अनेक हैं । छेद अपवर्तन और अपहार ये भी सब पर्यायवाचक शब्द हैं । दिवस पक्ष महीना और वर्ष इनमेंसे किसी भी एक आदिके प्रमाणानुसार प्रवृज्या--दीक्षाका अपहरण करनेको छेदप्रायश्चित्त कहते हैं । परिहार नाम पृथक्करणका है । महीना दो महीना अथवा कुछ भी परिमित कालके लिये संघसे पृथक् कर देनेको परिहारप्रायश्चित्त कहते हैं। उपस्थापन पुनःक्षण पुनश्चरण पुनर्वतारोपण ये सब शब्द पर्यायवाचक हैं, सम्पूर्ण दीक्षाको छेदकर फिरसे नवीन दीक्षा देनेको अथवा चारित्र धारण करानेको यद्वा नवीनतया व्रतोंके आरोपण करनेको उपस्थापन नामका प्रायश्चित्त कहते हैं। इस प्रकारसे प्रायश्चित्त तपके ९ भेद हैं। यह देश काल शक्ति संहनन और काय इन्द्रिय जाति तथा गुणोत्कर्षकृत संयमकी विराधनाके अनुसार उसकी शुद्धिके लिये योग्यतानुसार दिया जाता है, भौर शुद्ध किया जाता है । अर्थात् एक ही अपराधका प्रायश्चित्त देश काल आदिकी अपेक्षासे हलका भारी अनेक प्रकारका होता है । संयमकी विराधना भी तरतमरूपसे अनेक प्रकारकी होती है। स्थावर कायकी विराधनासे द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियकी विराधना उत्तरोत्तर अधिकाधिक होती है। पंचेन्द्रियोंमें भी पशु आदिकी विराधनासे मनुष्य जातिकी विराधना अधिक दर्जेकी है, और मनुष्योंमें भी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आदि गुणोत्कर्षके धारण करनेवालेकी विराधना उत्तरोत्तर उत्कृष्ट दर्जेकी होती है । विराधनाके अनुसार ही प्रायश्चित्त भी हलका भारी हुआ करता है। फिर भी देशकालादिकी योग्यतानुसार गुरुके द्वारा हलका भारी प्रायश्चित्त दिया जाकर अपराधीको शुद्ध किया जा सकता है। प्रायश्चित्त शब्द प्रायः और चित्त इस तरह दो शब्दोंके मेलसे बना है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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