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________________ सूत्र २०-२१ । सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । यथायोग्य समयमें निद्रा लेते समय एक पार्श्वसे या दण्डाकार लम्बे होकर शयन करना और उसी तरह सोते रहना, करवटको न बदलना, और उसके कष्टको सहन करना । रात्रिको स्मशान-मरघट आदिमें या दिनको पर्वतादिके ऊपर प्रतिमायोगको धारण करके खड़े रहना और उसकी बाधाको सहन करना । तथा धूप वर्षा आदिको रोकनेवाले पदार्थोंसे रहित-निरावरण जगहमें खड़े होकर ध्यानादि करना या बैठना आदि । इस तरह अनेक प्रकारसे शरीरको क्लेश देनेका नाम कायक्लेशतप है। यह भी समीचीन तभी समझा जा सकता है, जबकि ज्ञानपूर्वक और संयम तथा समाधिकी सिद्धिके लिये किया जाय ।। उपर जो छह प्रकारके बाह्य तप बताये हैं, उनमें से प्रत्येकका फल सङ्गत्याग, शरीरलाघव, इन्द्रियविनय संयम-रक्षण और कर्म-निर्जरा है । अर्थात् इन तपोंके करनेसे शरीरमेंसे भी माका भाव दूर होता है, और अन्तरङ्ग बाह्य सभी परिग्रह छूटकर निर्मम निरहंकार रूप परिणाम सिद्ध होते हैं । तप न करनेसे शरीर भारी रहता है, जिससे कि प्रमादकी बृद्धि होती है । अतएव इन तपोंके निमित्तसे शरीरमें लघुता आती है, जिससे कि प्रत्येक कार्य प्रमाद रहित हआ करता है । तथा इनके निमित्तसे इन्द्रियाँ भी उद्रेक को प्राप्त नहीं हुआ करतीं, जिससे कि संयमकी रक्षा और कर्मोंकी निर्जरा हुआ करती है । क्रमानुसार अन्तरङ्ग तपके भेदोंको गिनाते हैंसूत्र-प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥२०॥ भाष्यम्-सूत्रक्रमप्रामाण्यादुत्तरमित्यभ्यन्तरमाह । प्रायश्चित्तं विनयो वैयावृत्त्यं स्वाध्यायो व्युत्सर्गो ध्यानमित्येतत्षड्डिधमाभ्यन्तरं तपः॥ अर्थ-सूत्र क्रमके अनुसार यहाँपर--इस सूत्रमें जो उत्तर शब्द आया है, उसका अर्थ अभ्यन्तर-अन्तरङ्ग समझना चाहिये । यह अन्तरङ्ग तप भी छह प्रकारका है—प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्याध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान । भावार्थ-बाह्य तपमें बाह्य-इन्द्रियगोचर होनेवाली वस्तुओंसे सम्बन्ध है । जैसे कि भोजनका परित्याग करना या प्रमाणसे कम लेना, अथवा अटपटी आखड़ी लेकर ग्रहण करना, अथवा रसादिको छोड़कर ग्रहण करना इत्यादि । यह बात इन तपोंमें नहीं है । ये अपने मनकी प्रधानतासे-आत्म-परिणामोंकी मुख्यतासे ही सिद्ध हुआ करते हैं, अतएव इनको अन्तरङ्ग तप कहते हैं । प्रायश्चित्त आदिका अर्थ आगे चलकर क्रमसे बताया जायगा। अन्तरङ्ग तपके उत्तरभेदोंको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं: सूत्र-नवचतुर्दशपंचदिभेदं यथाक्रमं प्रारध्यानात् ॥२१॥ भाष्यम्-तदाभ्यन्तरं तपः नवचतुर्दशपञ्चद्विभेदं भवति यथाक्रम प्रारध्यानात् । इत उत्तरं यद्वक्ष्यामः तद्यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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