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________________ सूत्र १२ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३६९ शरीरनाम, तैजसशरीरनाम और कार्मणशरीरनाम । अङ्गोपाङ्गनामकर्मके तीन भेद हैं । जोकि इस प्रकार हैं- औदारिकाङ्गोपाङ्ग, वैक्रियशरीराङ्गोपाङ्ग आहारकशरीराङ्गोपाङ्ग इनमें भी एक एकके अनेक अवान्तर भेद हैं । जैसे कि अङ्गनामकर्मके उत्तरभेद इस प्रकार हैं— शिरोनाम उरोनाम पृष्ठनाम बाहुनाम उदरनाम और पदनाम | उपाङ्गनामकर्मके भी अनेक भेद हैं । जैसे कि--स्पर्शनाम, रसनाम, घ्राणनाम, चक्षुर्नाम, और श्रोत्रनाम, । मस्तिष्क, कपाल, कृकाटिका, शङ्ख, ललाट, तालु, कपोल, हनु, चिबुक, दशन, ओष्ठ, भ्रू, नेत्र, कर्ण, और नासिका आदि शिरके उपाङ्ग हैं । इसी तरह और भी समस्त अङ्गों तथा, उपाङ्गों के नाम समझ लेने चाहिये। जिसके उदयसे शरीर और उसके अङ्गोपाङ्ग की ऐसी आकृति - विशेष नियमित रूप से बने, जोकि उस उस जातिका लिङ्गरूप हो, उसको निर्माणनामकर्म कहते हैं । प्राप्ति हो जानेपर रचित शरीरोंका परस्पर में जिस कर्मके उदयसे बन्धन हो, उसको बन्धननामकर्म कहते हैं। अर्थात् जिस कर्मके निमित्त से औदारिकादि शरीरों के योग्य आकारको प्राप्त हुए पुद्गलस्कन्धों का आपस में ऐसा संश्लेषविषेशरूप सम्बन्ध हो जाय, जोकि प्रदेशावगाह अथवा एकत्व बुद्धिके जनक आवश्वग्भावरूप हो, उसको बन्धननामकर्म समझना चाहिये । यदि इस तरहका शरीरोंका परस्परमें बन्धन न हो, तो बालूके बने हुए पुरुषकी तरह मनुष्यमात्र के शरीर अबद्ध ही रहें। - जीवमात्र के शरीरों के पुद्गलस्कन्ध बद्धरूप न रहकर विशीर्ण ही हो जाँय | अतएव उनके बन्धनविशेषकी आवश्यकता है । सो यही कार्य बन्धननामकर्मके उदयसे हुआ करता है । शरीर योग्य पुद्गलस्कन्धोंका बन्धनावशेष हो जानेपर भी जबतक ऐसा दृढ़ और प्रचयविशेषरूप संश्लेष न हो जाय, जैसा कि काष्ठ - लकड़ी अथवा मृत्पिण्ड - कंकड़ पत्थर या कपाल और लोहे के पुद्गलस्कन्धमें हुआ करता है, तबतक शरीर स्थिर नहीं रह सकता । अतएव जिस कर्मके उदयसे संघातविशेषका जनक प्रचयविशेष हो, उसको संघातनामकर्म कहते हैं । जिस कर्मके उदयसे शरीरकी आकृतिविशेष बने, उसको संस्थाननामकर्म कहते हैं । उसके छह भेद हैं । —समचतुरस्रनाम, न्यग्रोधपरिमण्डलनाम, साचिनाम, कुञ्जनाम, वामननाम, और हुण्डकनाम | जिस कर्मके उदयसे शरीर और उसके अझ उपाङ्ग सामुद्रिक - शास्त्र के अनुसार यथाप्रमाण हों, उसको समचतुरस्र कहते हैं । जिस कर्म के उदयसे न्यग्रोध- वटवृक्षकी तरह शरीरका आकार नीचे हलका-पतला और ऊपर भारी - मोटा हो, उसको न्यग्रोधपरिमण्डल कहते हैं । जिस कर्मके उदयसे शरीर स्वाति नक्षत्र के समान नीचे भारी और उपर हलका बने, उसको साचि अथवा स्वाति कहते हैं । जिस कर्मके उदयसे कुब्ज - कूबड़सहित शरीर प्राप्त हो, उसको कुब्जनाम कहते हैं । जिस कर्मके उदयसे छोटा शरीर प्राप्त हो, उसको वामननामकर्म कहते हैं । जिस 1 1 १ – – शरीरके आठ अंग प्रसिद्ध हैं । यहाँपर छह नाम गिनाये हैं, किन्तु बाहु दो और पाद दो गिननेसे आठ अंग पूरे हो जाते हैं । ४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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