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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ अष्टमोऽध्यायः इनमें से पृथिवीकायिकनातिनामकर्मके अनेक भेद हैं । जैसे कि शुद्ध पृथिवी', शर्करा, वालुका, उपल, शिला, लवण, लोह, पारद, तांबा, सीसा, चांदी, सोना, हीरा, हड़ताल, हिगुल, मेनशिल, सस्यकाञ्चन, प्रवाल, मूंगा, अभ्रपटले, अभ्रवालिका, इत्यादि । इसी तरह और भी अनेक भेद हैं । यथा-गोमेदँक, रुचके, अङ्क, स्फटिक, लोहिताक्ष, जलावभास, वैडूर्य, चन्द्रप्रभ, चन्द्रकान्त, सर्यकान्त, जलकान्त, मसारगल, अश्मगर्म, सौगन्धिक, पुलेक, अरिष्ठे, काञ्चनमणि, इत्यादि । इसी तरह जलकायिकजातिनामकर्मके भी अनेक भेद हैं। जैसे कि-उपक्लंद, अवश्याय, नीहार, हिम, घनोदक, तथा शुद्धोदक इत्यादि । अग्निकायिकनातिनामकर्म भी अनेक प्रकारका है। जैसे कि-अङ्गार, ज्वाला, घात (स्फुलिंग), अर्चि, मुर्मुर, और शुद्धाग्नि । इसी प्रकार और भी अनेक अवान्तर भेदोंको समझ लेना चाहिये । तथा वायुकायिकजातिनामकर्मके भी अनेक भेद हैं।यथा-उत्कलिका, मण्डलिका, झञ्झकायन, संवर्तक, इत्यादि । वनस्पतिकायिकजातिनामकर्मके भी अनेक अवान्तर भेद हैं । जैसे कि कन्द, मूल, स्कन्ध, त्वक् , काष्ठपत्र, प्रवाल, पुष्प, फल, गुल्म, गुच्छ, लता, वल्ली, तृण, पर्वकाय, शेवाल, पनक, वलक, और कुहन । इत्यादि अनेक भेद हैं । ये सब एकेन्द्रियजातिनामकर्मके अवान्तर भेद हैं। इसी तरह द्वीन्द्रिय प्रभृति जातिनामकर्मके उत्तरभेदोंको समझ लेना चाहिये । जैसेकि पेटमें जो कीड़े पड़ जाते हैं-पटेरे, तथा शंख, सीप, गिंडोले, जोंक, और लट आदि जीव द्वीन्द्रिय हैं । इनके स्पर्शन और रसन ये दो ही इन्द्रियाँ रहती हैं । कुथु, चींटी, जू , खटमल, विच्छू और इन्द्रगोप आदि त्रीन्द्रिय जीवोंके भेद हैं । मच्छड़ पतङ्ग, डांस, मक्खी, भ्रमर, वर ततैया आदि चतुरिन्द्रिय जीवोंके अवान्तर भेद हैं। हाथी घोडा ऊंट आदि पशु और मयूर, कपोत, तोता, मैना आदि पक्षी सर्प मसक आदि जीव, तथा मत्स्य, मकर, कच्छप आदि जलचर जीव और देव नारक तथा मनुष्य ये सब पंचेन्द्रिय जीवोंके अवान्तर भेद हैं। अतएव इन जातिनामकौके उत्तरभेदोंको समझना चाहिये। शरीर नामकर्मके पाँच भेद हैं । यथा-औदारिकशरीरनाम, वैक्रियशरीरनाम, आहारक १-जिसके अवान्तर भेद हैं, उस शब्दको प्रत्येक भेदके साथ जोड़कर बोलना चाहिये, जैसे कि शुद्धपृथिवीकायिकजातिनामकर्म, शर्करापृथिवीकायिकजातिनामकर्म, इत्यादि । इसी तरह जलकायिकादिके भेदोंके विषयमें भी समझना चाहिये । २--अभ्रकके पटल । ३--अभ्रककी बालु । ४--इसको कर्केतन भी कहते हैं । इसका रंग गोरोचन सरीखा होता है । ५--इसका दूसरा नाम राजावर्तमणि भी है । इसका रंग अलसीके फूल सरीखा होता --इसका रंग प्रवाल सरीखा होता है । ७--पद्मरागमणि। ८--इसका रंग मूंगाकासा होता है। ९-१०मणिविशेष । ११--गैरिक, चन्दन, बर्वर, वक, मोच प्रभृति रत्नविशेष और चिन्तामणिरत्न तथा अनेकविध पृथिवी, मेरु आदि पर्वत, द्वीप, विमान, भवन, वेदिका, प्रतिमा, तोरण, स्तूप, चैत्यवृक्ष, जम्यूवृक्ष, शाल्मलिवृक्ष, घातकीवृक्ष, और कल्पवृक्ष आदि पृथिवीके भेदोंमें ही अन्तर्भूत हैं । दिगम्बर-सम्प्रदायमें पृथिवीके ३६ भेद गिनाये हैं, जिनमें कि इन सबका अन्तर्भाव हो जाता है। इसी प्रकार जलादिकके भेद भी समझ लेने चाहिये। जैसे कि श्रीअमृतचन्द्रसूरीने तत्त्वार्थसारमें गिनाये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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