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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[सम्बंधकारिकाः ।
भावार्थ-जब इसके उपदेशसे स्व और परका कल्याण एकान्तरूपसे होना निश्चित है, तब विद्वानोंको इसके उपदेश देनेमें ही सदा अप्रमत प्रवृत्ति रखना उचित है ।
इस प्रकार मोक्षमार्गके उपदेशकी आवश्यकता और सफलताको बताकर अब अन्तकी सम्बन्ध दिखानेवाली कारिकाके द्वारा वक्तव्य-विषयकी प्रतिज्ञा करते हैं।
नर्ते च मोक्षमार्गाद्धितोपदेशोऽस्ति जगति कृत्स्नेऽस्मिन् ।
तस्मात्परमिममेवेति मोक्षमार्ग प्रवक्ष्यामि ॥ ३१ ॥ ____ अर्थ-इस समस्त संसारमें मोक्षमार्गके सिवाय और किसी भी तरहसे हितोपदेश नहीं बन सकता, अतएव मैं-ग्रंथकार केवल इस मोक्षमार्गका ही अब यहाँ व्याख्यान करूँगा।
भावार्थ-जगत्में जितने भी उपदेश हैं, वे जीवका वास्तवमें सिद्ध नहीं कर सकते । क्योंकि वे कर्मोंके क्षयका उपाय नहीं बताते । अहितका कारण कर्म है। अतएव जबतक उसका क्षय न होगा, तबतक आत्माका वस्तुतः हित भी कैसे होगा। इसलिये मोक्षमार्गका उपदेश ही एक ऐसा उपदेश है, जोकि वस्तुतः आत्माके हितका साधक माना जा सकता है । अतएव जो मुमुक्षु हैं, और जो अपना तथा परका कल्याण करना चाहते हैं, उन्हें इसीका ग्रहण धारण और व्याख्यान करना चाहिये । अतएव ग्रंथकार भी इस ग्रंथमें मोक्षमार्गके ही उपदेश करनेकी प्रतिज्ञा करते हैं ।
___ इति सम्बन्धकारिकाः समाप्ताः । इस प्रकार इकतीस कारिकाओंमें इस सूत्रग्रंथके निर्माण सम्बन्धको बताया है। अब आगे वक्तव्य विषयका प्रारम्भ करेंगे।
१-भगवन् ! किं नु रवलु आत्मने हितमिति, स आह मोक्ष इति ।-पूज्यपाद-सर्वार्थसिद्धि। तथा “अन्तरेण मोक्षमार्गोपदेशं हितोपदेशो दुष्प्राप्य इति"।-अकलंकदेव-राजवार्तिक०
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