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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । तस्मात्तत्मामाण्यात् समासतो व्यासतश्च जिनवचनम् । श्रेय इति निर्विचारं ग्राह्यं धार्ये च वाच्यं च ॥ २८ ॥ अर्थ - उपर्युक्त कथनसे जिनवचनको प्रमाणता सिद्ध है । वह समास और व्यास दोनों ही तरहसे कल्याणरूप है, अथवा कल्याणका कारण है । अतएव निःसंशय होकर इसीको ग्रहण करना चाहिये, इसीको धारण करना चाहिये, और इसीका उपदेश - निरूपण आदि करना चाहिये । भावार्थ -- इसके एक एक पदकी शक्ति अनंत है, वादियोंके द्वारा अजेय है, दुःखका ध्वंसक, और अनंत सुखका साधक है, निर्बाध विषयोंका प्रतिपादक गम्भीर और और अतिशययुक्त है, इत्यादि पूर्वोक्त कारणों से जिनवचनकी प्रामाणिकता सिद्ध है। अतएव उसमें किसी प्रकार भी संदेह करना उचित नहीं है | श्रवण ग्रहण धारण आदि जो श्रोताओंके गुण बताये हैं, उनके अनुसार प्रत्येक श्रोता और वक्ता को इस जिनवचनका ही निःसंदेह होकर ग्रहण धारण और व्याख्यान करना चाहिये । कारिकाः । ] इस जिनवचनके सुननेवाले और व्याख्यान करनेवालोंको जो फल प्राप्त होता है उसे बताते हैं- न भवति धर्मः श्रोतुः सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात् । ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्धा वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति ॥ २९ ॥ अर्थ — इस हितरूप श्रुतके श्रवण करनेसे सभी श्रोताओं को धर्मकी प्राप्त होती है, इतना ही नहीं, बल्कि उनके ऊपर अनुग्रह करनेकी उसका व्याख्यान करता है, उस वक्ताको भी सर्वथा धर्मका लाभ होता है । भावार्थ - इस ग्रंथको जो आत्म-कल्याण की बुद्धिसे स्वयं सुनेंगे अथवा दूसरोंको सुनावेंगे वे दोनों ही आत्म-कल्याणको सिद्ध करेंगे । क्योंकि धर्म ही आत्माका हित है, और उसका कारण जिनवचन ही है । 1 १३ इस ग्रंथका व्याख्यान करनेके लिये वक्ताओंको उत्साहित करते हैंश्रममविचिन्त्यात्मगतं तस्माच्छ्रेयः सदोपदेष्टव्यम् । एकान्तसे - सर्वात्मना सदिच्छा से जो आत्मानं च परं च हि हितोपदेष्टानुगृह्णाति ॥ ३० ॥ अर्थ -- जिनवचनरूपी मोक्षमार्गका वक्ता अवश्य ही धर्मका आराधन करनेवाला है । बल्कि इतना ही नहीं, किंतु हितरूप श्रुतका उपदेश देनेवाला अपना और परका दोनोंका ही अनुग्रह - कल्याण करता है; अतएव वक्ताओं को अपने श्रम आदिका विचार न करके सदा इस श्रेयोमार्गका ही उपदेश देना चाहिये । Jain Education International १ - संक्षेप । २ - विस्तार । ३ - इसका दूसरा अर्थ ऐसा भी हो सकता है, कि इस ग्रंथके सभी श्रोताओंको धर्मकी सिद्धि होगी, ऐसा एकान्तरूपसे नहीं कहा जा सकता, परन्तु अनुग्रहबुद्धिसे व्याख्यान करनेवालेको धर्मका लाभ होता ही है, ऐसा एकान्तरूपसे कहा जा सकता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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