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________________ सूत्र २५-२६-२७-२८।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३४७ भाष्यम् - कन्दर्पः कौकुच्यं मौखर्यमसमीक्ष्याधिकरणमुपभोगाधिकत्वमित्येते पञ्चानर्थ दण्डविरतिव्रतस्यातिचारा भवन्ति । तत्र कन्दर्पो नाम रागसंयुक्तोऽसभ्यो वाक्प्रयोगो हास्यं च । कौकुच्यं नाम एतदेवोभयं दुष्टकायप्रचार संयुक्तम् । मौखर्यमसंबद्धबहुप्रलापित्वम् । असमीक्ष्याधिकरणं लोकप्रतीतम् । उपभोगाधिकत्वं चेति । अर्थ - अनर्थदण्डविरतिव्रत के पाँच अतीचार हैं- कन्दर्प, कौकुच्य, मौखर्य, असमीक्ष्याधिकरण, और उपभोगाधिकत्व | रागयुक्त असभ्य हास्यके वचन बोलना इसको कन्दर्प कहते हैं । इन्हीं दोनों बातोंको - हास्य और सभ्यता के विरुद्ध रागपूर्ण भाषण को ही कौकुच्य कहते हैं, यदि वह शरीरकी दूषित चेष्टा से भी संयुक्त हो । विना सम्बन्ध अि प्रचुर बोलने- बड़बड़ानेको मौखर्य कहते हैं। असमीक्ष्याधिकरण शब्दका अर्थ लोकमें सबको मालूम है । उपभोगाधि त्वका अर्थ भी प्रसिद्ध है । .. भावार्थ – विना विचारके प्रयोजनसे अधिक क्रिया करनेको असमीक्ष्याधिकरण कहते हैं । यह तीन प्रकारसे हुआ करता है - मन वचन और कायके द्वारा । मनमें निरर्थक संकल्प विकल्प करना या मनोराज्यकी कल्पना करना, बेमतलब हर जगह कुछ कुछ बोलना और शरीरसे निरर्थक कुछ न कुछ चेष्टा करते रहना । भोग या उपभोगरूप वस्तुओंका जितना प्रमाण किया है, उसके भीतर ही, परन्तु आवश्यकतासे अधिक संग्रह करना उपभोगाधिकत्व नामका अतीचार है। इस प्रकार अनर्थदण्डविरति नामक व्रतके पाँच अतीचार हैं, जो कि उसका अंशतः घात करनेवाले दूषण समझकर छोड़ने चाहिये । सामायिकत्रतके अतीचारोंको गिनाते हैं:-- सूत्र - - योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थापनानि ॥ २८ ॥ भाष्यम् - काय दुष्प्रणिधानं वाग्दुष्प्रणिधानं मनोदुष्प्रणिधानमनादरः स्मृत्यनुपस्थापनमित्येते पञ्च सामायिकव्रतस्यातिचारा भवन्ति ॥ अर्थ — सामायिकतके पाँच अतीचार इस प्रकार हैं-- काय दुष्प्रणिधान, वाग्दुष्प्रणिधान, मनोदुष्प्रणिधान, अनादर, और स्मृत्यनुपस्थापन । सूत्रमें योग शब्दका प्रयोग किया है, जिसका कि अर्थ पहले बता चुके हैं, कि मन वचन कायकी क्रियाको योग कहते हैं । अतएव इसके तीन भेद हैं। -मन वचन और काय । दुष्प्रणिधान शब्दका अर्थ है, दुरुपयोग करना, अथवा इनका जिस तरह उपयोग करना चाहियें, उस तरह से न करके अन्य प्रकारसे या दूषितरूपसे उपयोग करना । अतएव योगोंके इस उपयोगकी अपेक्षा से तीन अतीचार हो जाते हैं-कायदुष्प्रणिधान, वाग्दुष्प्रणिधान, और मनोदुष्प्रणिधान । सामायिकके समयमें शरीर को जिस प्रकार से रखना चाहिये, उस तरहसे न रखना, काय दुष्प्रणिधान है, इसी तरह वचनका जिस प्रकार विसर्ग करना चाहिये, उस प्रकार न करना, वाग्दुष्प्रणिधान है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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