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________________ सूत्र १६ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसत्रम्। ३३७ दिग्नतमें यावज्जीवनके लिये दशों दिशाओंका परिमाण कर लिया जाता है, कि मैं अमुक स्थानसे परे अपने भोगोपभोग अथवा आरम्भ आजीविका आदिके लिये नहीं जाऊँगा । अतएव परिमित क्षेत्रसे बाहरका उसको किसी भी प्रकारका पाप नहीं लगता । दिखतके भीतर प्रतिदिन अथवा कुछ दिनके लिये जो इस प्रकारका परिमाण कर लिया जाता है, कि आज अथवा इतने समय तक अथवा इतने दिन तक इतने क्षेत्रसे बाहर नहीं जाऊँगा, इसको देशावकाशिक कहते हैं। अनर्थदण्डव्रतका अर्थ ऐसा भी है, कि जिससे अपना कोई प्रयोजन सिद्ध होता नहीं, ऐसे पापबन्धके निमित्तभूत कार्यको करना अनर्थदण्ड है, और उसके त्यागको अनर्थदण्डव्रत कहते हैं । समय नाम एकत्वका है। विधिपूर्वक एक आत्मस्वरूपका चिन्तवन करना, या एकत्वकी सिद्धिके लिये जो विधिविशेष किया जाता है, वह सब सामायिक है। पौषधोपवासके दिन स्नानादि सभी संस्कारोंका त्याग किया जाता है, इसका प्रयोजन यही है, कि ऐसा करनेसे निर्विकारता जागृत होती है, और धर्म-सेवनमें चित्त अप्रमत रहता है । जो एक बार भोगनेमें आवें, भोगनेमें आवें ऐसे भोजन पान इत्र माला आदि पदार्थोंको उपभोग और जो वार बार भोगनेमें ऐसे स्त्री गृह शय्या वस्त्र वाहन-सवारी आदि पदार्थोंको परिभोग कहते हैं । इनमेंसे जो अति सावध हैं, उनका सर्वथा त्याग और जो अल्प सावध हैं, उनका परिमाण भोगोपभोगव्रतमें किया जाता है । इसको भोगोपभोगपरिमाणवत भी कहते हैं। जिसकी कोई तिथि निश्चित नहीं है, अथवा निनके किसी तिथिका प्रमाण नहीं है, अथवा जिन्होंने स्वयं गृह आरम्भ आदिका परित्याग कर दिया है, और इसी लिये जो स्वयं आहारके बनाने आदिमें प्रवृत्त न होकर गृहस्थोंके घरोंमें उसके लिये गमन करते हैं, उनको अतिथि कहते हैं। उनके आत्म-कल्याण-रत्नत्रय-धर्मको सिद्ध करनेके लिये और अपना भी कल्याण करनेके लिये न्यायोपार्जित और उनके योग्य वस्तुका दान करना, इसको अतिथिसंविभाग कहते हैं । इस व्रतके धारण करनेवालेको प्रतिदिन दानमें प्रवृत्त होना चाहिये । . इन सातों ही व्रतोंको सप्तशील भी कहते हैं। इनके निमित्तसे मूलवत स्थिर होते, विशुद्ध होते और सगुण बनते हैं। अतएव अगारी व्रती-श्रावकोंको इनका भी पालन करना चाहिये। . भाष्यम्-किं चान्यत् । अर्थ-अगारी व्रतीको जिनका पालन करना चाहिये, ऐसे मूलवत और उत्तरव्रतोंका स्वरूप बताया। किन्तु इनके सिवाय भी जिसका उसे अवश्य आराधन करना चाहिये, उसका वर्णन करनेके लिये सूत्र कहते हैं: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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