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________________ ३३६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ सप्तमोऽध्यायः सामायिकके लिये जितने कालका प्रमाण किया हो, उतने कालतक सावद्ययोगका सर्वथा परि. त्याग करके आत्माके शुद्ध स्वरूपका चिन्तवन और विधिपर्वक सामायिक पाठका उच्चारण आदि करना चाहिये। पौषध नाम पर्व-कालका है । पौषद्य और पर्व दोनों शब्द एक ही अर्थक वाचक हैं। आहारका परित्याग करके धर्म-सेवन करनेके लिये धर्मायतन या निराकुल स्थानपर निवास करनेको उपवास कहते हैं । पौषध-पर्वकालमें जो उपवास किया जाय, उसको पौषधोपवास कहते हैं । अष्टमी चतुर्दशी अमावस्या और पूर्णिमा पर्व-तिथियाँ हैं । पौषधोपवासकी विधि इस प्रकार है, कि जो चतुर्थ आदि उपवास करनेवाला हो, उस श्रावकको इन पर्वतिथियोंमें से अन्यतम-किसी भी एक तिथिको अथवा सम्पूर्ण तिथियोंको आहारादिके त्यागका नियम करना चाहिये। स्नान उबटन गन्ध माला अलंकारका त्याग करके और समस्त सावद्ययोगको छोड़कर कशासन-दर्भासन-चटाई अथवा लकड़ाके पट्टे आदिमेंसे किसी भी एक प्रकारके आसनपर वीरासन पद्मासन स्वस्तिकासन आदि अनेक आसनोंमेंसे रुचि और शक्तिके अनुसार किसी भी आसनसे बैठकर धर्म-सेवन करते हुए-पूजा जप स्वाध्यायमें रत रहकर जागरणके द्वारा-रात्रिको निद्रा न लेकर धर्म-सेवनके द्वारा ही पौषधकालको व्यतीत करना चाहिये । भोजन पान आदि खाद्य पेय पदार्थोंका, स्वाद्य-ताम्बूल-भक्षण आदिका, एवं गन्धमाला आदि और भी उपभोगरूप मनोहर इष्ट विषयोंका, तथा आच्छादन पहरने योग्य वस्त्र अलंकार-भूषण, शय्या, आसन, मकान, यान-हाथी घोड़ा ऊंट आदिकी सवारी अथवा विमान आदि, और वाहन-बैलगाड़ी आदि सामान ढोनेवाली सवारी, इत्यादि परिभोगरूप पदार्थोंका जो कि अति सावद्यरूप हैं, त्याग करना, और जो अल्प सावध हैं, उनका परिमाण कर लेना इसको उपभोगपरिभोगव्रत कहते हैं। न्यायपूर्वक कमाये हुए अथवा संचित और देने योग्य अन्नपान आदि पदार्थोंका देश कालके अनुसार श्रद्धापूर्वक सत्कारके साथ क्रमसे आत्म-कल्याण करनेकी उत्कृष्ट बुद्धि-भाव. नासे संयत–साधुओंको वितरण-दान करना इसको अतिथिसंविभाग कहते हैं। भावार्थ-ऊपर जो अहिंसादिक पाँच व्रत बताये हैं, उनको मूलवत कहते हैं, और उनके पोषक तथा उनमें निर्मलता आदि गुणोंको उत्पन्न करनेवाले इन दिग्वत आदिको उत्तरव्रत कहते हैं। उत्तरव्रत सात हैं, जिनका कि यहाँपर लक्षण बताया गया है । १--एक दिनकी दो भुक्ति हुवा करती हैं। अतएव पर्व दिनकी दो और पारणक तथा धारणक दिनकी एक एक इस तरह चार भुक्तिका जिसमें त्याग हो, उसको चतुर्थ कहते हैं। इसी तरह वेला तेलाआदिको षष्ठ अष्टम आदि कहते हैं । २--पहले तीनको गुणत्रत और अंतके चारको शिक्षात्रत कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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